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राजनैतिक शून्यता

यह चर्चा बंगलोर में वर्ष २००८ के मध्य में की गयी थी ।ये शब्द माननीय के द्वारा कार्यक्रम के दौरान बोले गए हैं, इन्हें जस का तस रखा गया है
सादर प्रणाम।
भारत में आज राजनैति शून्यता है। राजनैतिक शून्यता से मेरा अर्थ सिर्फ इतना है कि सामान्यजनों को कोई परवाह नहीं, कोई फिक्र नहीं कि देश की राजनीति में उनके भविष्य को तय करने के लिए कौन सी बातें चल रही हैं। संसद में तो खैर कोई पक्ष, विपक्ष जैसी कोई बात ही नहीं बची। सब एक ही थाली के चट्टे बट्टे हैं, लेकिन भारत की एक सामान्य जनता में मेरी देखी मैं समझता हूं कि राजनैतिक शून्यता है और जिस भी राष्ट्र के अंदर राजनैतिक शून्यता हावी हो जाती है, लोगों की चेतना में इस बात के सवाल नहीं आते कि उनके भविष्य को तय करने वाले लोग आखिर तय क्या कर रहे हैं। उस राष्ट्र का भविष्य हमेशा अधर में लटका होता है।
मुझे लगता है कि भारत के अंदर भी कुछ यही हाल है। दिल्ली में बैठकर फैसले ले लिए जाते हैं और लोगों को कोई खबर नहीं होती और न तो लोग विचार करते हैं। भारत ने तो विचार करने ही बंद कर दिए हैं। राजनीति के संबंध में हर एक आदमी रोज बातें करता है, लेकिन राजनीति के संबंध में दिशा क्या हो ? इस संबंध में विचार करने वाला वर्ग हमने खो दिया है और इसीलिए यह कारण है कि बहुत कुछ ऐसा चल रहा है, जिसके आगे इस सामान्य जनता और भारत की आबादी को ही दुख और शर्म ढोना है।
मैं चाहूंगा कि बीते ५५-६० सालों में हमने जितनी बातें की है, कम से कम उनके खिलाफ कोई आधार तो तैयार खड़ा कर पाए। भारत को आज जरूरत है जीवन के सारे मायनों में विचार को देने की। एक वैचारिक क्रांति की भारत को आज आवश्यकता है। पिछले ५५-६० सालों में केवल एक मौका ऐसा आया था, जब भारत ने विचार की क्रांति को दिशा और दशा दी थी और वो समय था ७७ का। आपातकाल के बाद भारत ने एक वैचारिक क्रांति को जन्म दिया था, लेकिन वो बड़ी आधी अधूरी क्रांति रह गई। उस वैचारिक क्रांति से पनपे लोग आज सबसे बड़े भ्रष्टाचारी बनकर हमारे सामने उभरे हैं, क्योंकि वो एक मायनों में रिएक्शन से पनपी हुई बातें थी। घटनाएं और घटनाओं ने जब सिर तक समाज को डूबा दिया था, उसके रिफलेक्शन और उसके रिएक्शन में पनपी वो बातें थी तो बहुत सारे लोग लीडर बन गए। आज ये जो हमारे सामने ये जो चेहरे हैं, बहुत सारे चेहरे उस वैचारिक या कहिए रिएक्शनरी जो बातें हुई थी, उसके नतीजे के रूप में हमारे सामने है। मैं वैसी कोई क्रांति की बात नहीं कर रहा। मैं चाहता हूं कि भारत के हर एक शहरों में छोटे-छोटे शहरों से लेकर छोटे-छोटे गांवों तक हर एक समाज के हर एक तबके में राजनीति के संबंध में विचारों की एक लड़ी छूट जाए। लोग विचार तो करना शुरू करें कि दिल्ली में बैठकर जो फैसले लिए जा रहे हैं, उनकी दशा और दिशा को कहां तक ये प्रभावित कर सकते हैं। भारत में क्या होना चाहिए और क्या नहीं ? जो हमारे चुने हुए प्रतिनिधि हैं, वो कहां तक हमारी बातों को राष्ट्र के आधार से जोड़ने की कोशिश करते हैं।
भारत का एक अगर वर्ग जिसे हमें इन्टेलक्चूवल वर्ग कहते हैं वो तो कहीं कम से कम खत्म हो चुका है, वो तो कोई वर्ग बचा ही नहीं। भारत के अंदर इन्टेलक्यूवल प्रतिभा तो कुछ बची ही नहीं, क्योंकि अगर भारत के अंदर कोई इन्टेलक्यूवल प्रतिभा होती तो ये जो सब कुछ चल रहा है, इस हिन्दुस्तान की धरती पर ये सब कुछ नहीं चल रहा होता। संसद में बैठे हुए विपक्ष की जरूरत नहीं है भारत को आज संसद के बाहर बैठे हुए लोगों की जरूरत है तो सरकार के फैसलों पर विचार दे सकें, चर्चा कर सकें, सामान्य जनता को जोड़ सके, क्योंकि जनता हम जो सामान्य लोग हैं, हम तो परवाह ही नहीं कर रहे और वो हम एक ऐसी कौम से ताल्लुकात रखते हैं, जो कौम हजार सालों की गुलामी के बाद, जो आज की गुलामी है, उसको भी स्वीकार करने को राजी है।
भारत ने दासता के अंदर जन्म लिया है या भारत जो दिन ब दिन जिन दासताओं को जन्म दे रहा है, यह सोचना मैं समझता हूं आज के इतिहासकारों का सबसे बड़ा कर्तव्य होना चाहिए, क्योंकि भारत को तो स्वतंत्रता मिल गई, लेकिन भारत के अंदर आज तक स्वतंत्रता नहीं पनप पाई, फ्रीडम नहीं जन्मा और ये कारण सिर्फ इतना है कि भारत के अंदर सामान्य जनता राजनैतिक रूप से शून्य है और इस राजनैतिक शून्यता का ही नतीजा है कि जिन लोगों को पालिटिक्स में होना चाहिए, राजनीति में होना चाहिए, वो कहीं आफिस में बैठकर मक्खन लगा रहे हैं और जिन लोगों को जेलों में बंद होना चाहिए, वो दिल्ली की कुर्सियों पर विराजमान हैं।
अखबारों से लेकर मीडिया तक लोग तो कहने को राजी हैं कि दागियों ने मंत्रीमंडल को अपना लिया, दागियों ने राजनीति को हथिया लिया, लेकिन इन दागियों को मारकर भगाने वाला, इन दागियों को गिराकर आगे बढ़ने वाला भला वो इंसान कहां है। कुर्सी तो एक ही है या तो दागदार बैठेगा या तो दागहीन बैठेगा। दागहीन तो बैठना ही नहीं चाहता, उसे तो फिक्र केवल इतनी है कि उसकी रोटियां चलती रहे और वो रोटियां ही उसे नसीब नहीं होती तो दागहीन के पास तो फुर्सत ही नहीं है तो दागदार ही बैठेगा और फिर राष्ट्र के फैसले वैसे ही दागदार होंगे।
भारत को आज जरूरत इस राजनीतिक शून्यता को खोले की है, अगर हम इस राजनैतिक शून्यता को नहीं हटा पाए तो हम कितनी भी बातें कर लें, बड़े-बड़े अम्पायर खड़े कर लें, बड़ी-बड़ी बिल्डिंग खड़ी कर लें, लेकिन भारत के अंदर से वो सामान्य सी परेशानियां कभी खत्म नहीं होने वाली, भारत विकास के पायदानों को कभी नहीं छू सकता। मुझे तो कभी-कभी देखकर यह अचरज होता है, इन धर्म और आध्यात्म के लोगों को जिन्हें आज सबसे ज्यादा जरूरत भारत को एक पारदर्शी समाज और एक पारदर्शी दिशा देने की है, आज वो लोग भी राजनीति पर बात नहीं करना चाहते। धर्म का काम राजनीति को हथिया लेने का नहीं है, धर्म का काम राजनीति को दिशा देने का है, लेकिन हुआ तो यह कि धर्म के नाम पर लोगों ने गद्दियां पा ली, सरकारें चुन ली गई और धार्मिक चुप बैठा रहा। बड़ी अजीब सी बातें इस हिन्दुस्तान में चलती हैं। धर्म जिसे दिशा देनी चाहिए थी, लोग उसका उपयोग कर दिल्ली की गद्दियों पर बैठ गए और धर्म चुप रहा, क्योंकि धार्मिकों के पास तो आज साहस ही नहीं।
भारत आज धार्मिक रूप से भी शून्य है और इस धार्मिक शून्यता का ही नतीजा है कि भारत राजनैतिक शून्य है, क्योंकि धर्म और आध्यात्म तो बल देता है, चेतना को दिशा देने के लिए, विचार को गति देने के लिए, लेकिन जिस राष्ट्र के धार्मिक और आध्यात्मिक लोग मंदिर, मस्जिद और आश्रम बनाने में व्यस्त हो, उन्हें भारत के विकास की चिंता ही कहां होगी, कहां चिंता होगी कि 30 प्रतिशत लोग आज गरीबी रेखा के नीचे जी रहे हैं, कहां चिंता होगी कि हजारों गांवों में आज पीने के पानी की सुविधा नहीं और लोग पटाखे फोड़ रहे हैं, कहां चिंता होगी कि जहां शिक्षा के संस्थान नहीं, वहां अरबों रुपए की मेट्रोज लगाई जा रही है, कहां चिंता होगी कि जहां सड़कें नहीं गांवों तक पहुंचने के लिए, कहां चिंता होगी। भारत आज इस राजनैतिक शून्यता से नहीं निकलता तो मैं नहीं मानता कि भारत राजनीति और समाज की गति को कोई बल दे सकता है। फिर चाहे 55 नहीं 5 हजार 500 साल लग जाए। हमारी दशा में जो परिवर्तन होगा, वो दुनिया के साक्षेप हमेशा ही अधूरा होगा। वो हमेशा ही अधूरा होगा और इस अधूरियत का नतीजा ये होगा कि धर्म और आध्यात्म तो खोएगा ही। मेरा चिंतित होना सिर्फ इस बात से है कि मैं आज ये महसूस करता हूं कि जिस राष्ट्र में 56 फीसदी लोग भ्रष्टाचारी हो, जिस राष्ट्र में हजारों औरतों के साथ बलात्कार हो रहा हो, जहां पर राजनीति दागदारियों से हावी हो, जहां रोज लोकतंत्र के साथ खिलवाड़ हो रहा हो और अगर लोग चुप बैठे हो तो मेरा सोचना जायज है कि क्या वो धार्मिक लोग है, क्या उनका आध्यात्म के साथ कोई वास्ता है ? क्योंकि धर्म और आध्यात्म जब जागता है तो जीवन के प्रति पूरी संवेदना जागती है। ये कहें कि जीवन के पहलुओं के साथ अगर संवेदना जाग जाए तो धर्म और आध्यात्म जाग जाता है।
तो मेरा चिंतित होना स्वाभाविक है, क्योंकि मैं तो देखता हूं कि भारत का बाहर का जगत तो सूचना ही पड़ा हुआ है, नहीं मैं धर्म और आध्यात्म को मंदिर, मस्जिद और आश्रमों में टिका हुआ नहीं देखना चाहता और उनके आधार पर धर्म और आध्यात्म को न तो गति मिलेगी, न तो दिशा मिलेगी, न तो जीवन सत्य की परछाईयों को छूने में सक्षम हो सकेगा। मैं जीवन को बंटा हुआ और कटा हुआ स्वीकार नहीं करता, इसलिए कहता हूं कि इस राजनैतिक शून्यता का हमें खात्मा करना होगा। भारत को विचार और भारत को विचार के क्रांति में ले जाना होगा। सड़क हो, चौराहे हो, लोगों के घर हो, विश्वविद्यालय हो, शिक्षा के संस्थान हो। राजनीति के प्रति हमें एक सोच रखनी पड़ेगी और सोचना पड़ेगा कि क्या वहीं हो रहा है, जो हम चाहते हैं ? क्या वही हो रहा है, जिससे भारत विकास की गति को अपनाएगा ? अवश्य ही यह एक दुष्कर काम होगा, लेकिन जीवन वैसे भी हमारा दुष्कर है। बिजली नहीं, पानी नहीं, शिक्षा नहीं, बच्चे बेरोजगार, इससे दुष्कर जीवन और हो क्या सकता है। शहरों में रहने वाले लोग बिजली, पानी, रोजगार, सड़क इनकी समस्या से जूझ रहे है, बढ़ते हुए भाव हैं, सामाजिक कोई सुरक्षा नहीं है। एक अरब की आबादी रोज हाथ पांच मारती हुई तो समस्याओं से तो हम वैसे ही जूझ रहे हैं, बेहतर ये हो इन समस्याओं को जो जिस तरीके से सहूलियत के साथ निपटाया जा सकता है और उसको निपटाने का जो केन्द्र राजनीति हो सकती है, समाज की व्यवस्था हो सकती है, उसके ऊपर चिंतन किया जाए। चिंतन किया जाए कि क्या हम चाहते हैं आरक्षण के ऊपर राजनीति हो, क्या हम चाहते हैं सड़कों और स्कूलों का विकास, क्या हम चाहते हैं हमारे बच्चों के लिए रोजगार के साधन, क्या हम चाहते हैं मंदिर और मस्जिद के ऊपर चुनाव लड़कर लोग दिल्ली पहुंच जाए या हम चाहते हैं कि इस राष्ट्र का विकास हो। सोचना हम सबको है, क्योंकि जीवन हम सबका है। एक-एक आदमी को आज सोचने की जरूरत है, एक-एक आदमी को।
सादर प्रणाम।
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