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विवेकानंद जी और भारत

यह चर्चा महाराष्ट्र में माननीय विवेक जी द्वारा की गयी थी जिसका जिसको मात्र टाइप करके आपके सामने प्रस्तुत किया गया है। आप इसकी ऑडियो रिकॉर्डिंग भी सुन सकते हैं, आनंद ही आनंद के YOUTUBE चैनल पर
सादर प्रणाम।
आप सभी को प्रणाम करता हूं। विवेकानंदजी का दिन है विषय भी विवेकानंदजी ही हैं। विवेकानंदजी तक पहुंचे, इसके पहले थोड़ी सी बातें जो डाक्टर साहब ने कही, वो बातें विवेकानंदजी के तारतम्य में भी कहीं आएगी और मुझे लगता है कि शायद उन्होंने भी बहुत गहराई के साथ इन बातों पर चिंतन किया होगा, तब जाकर उनका अपनी जिंदगी में कार्यपालन भी किया। एक छोटी सी बात मेरे से किसी ने पूछी कि मालाएं क्यों नहीं ? मालाएं आखिर क्यों नहीं लेते और पैर क्यों नहीं छूने देते ? मजेदार तथ्य यह है कि जब इतिहास ने, जब भारतीय इतिहास ने इस सिविलाईजेशन ने, जब मालाओं की पद्धति लाई थी, जब मालाएं पहनाई जाती है तो बहुत इंट्रेस्टिंग बात होती है। उस समय माला पहनने के लिए आपको माला पहनाने वालों से ज्यादा झुकना पड़ता है। सम्मान लेने से पहले सम्मानित होने वाले को जो सम्मान दे रहा होता है, उससे ज्यादा झुकना पड़ता है, नम्र होना पड़ता है, तब कहीं जाकर सम्मान की वजह बनती है। ये माला की बहुत महान बात रही, हम भूलते चले गए। आज माला पहनने वाले अकड़कर कई मालाएं ले लेते हैं।
आज सुबह से मैं यूजली कभी टीवी देखने का समय मिलता नहीं न मेरी कोई रूचि है तो आज सुबह शैलेश जी हमारे साथ थे, बातचीत चल रही थी तो मैं सुबह से बैठकर जो भी समय मिला, आज वो जितने ये 24 बाई 7 धर्म मिलते हैं, उन सारी जगहों पर आज मैं टीवी पर देख रहा था। जितने टीवी चैनल हो सकते हैं, सारे चैनल। मजेदार बात जो मुझे दिखाई दी जहां तथ्य, जब सम्मान जिन्हें देना चाहिए, उन्हें जितना विनम्र होना चाहिए, कहीं दंभ बहुत ज्यादा दिखाई दिया कि जिन मंचों पर सम्मान की भावनाएं जब आए, वहां से इतनी नम्रता टपके कि सम्मान देने वाला भी करुणा से घायल हो जाए, लेकिन सम्मान से ज्यादा दंभ इतना ज्यादा दिखा कि मुझे लगा कि अभी तक तो जो, मैं इसीलिए..., मैं आज पांच छह साल हो चुके हैं, जब से मैं इस दौर में आया, मैंने कभी मालाएं नहीं स्वीकारी, क्योंकि इसका बड़ा आध्यात्मिक कारण था और दूसरा कारण यह था कि हम मालाएं पहनाने के इतने आदि हो चुके हैं कि हम माला किसको और कब पहनानी है, यह भी भूल चुके हैं। मैंने कहा कम से कम एक बात तो शुरू की जाए कि माला अगर 10-20-50 बार नहीं पहनी गई तो शायद लोग सवाल करना तो शुरू करेंगे कि मालाएं पहनाई क्यों न जाए ?
एक मजेदार बात रही कि विवेकानंदजी की बातचीत होती है। कई सालों से कार्यक्रम यहां पर चल रहे हैं। बहुत सारे लोग यहां पर आए हैं और आए होंगे। कई तरीकों से विवेकानंदजी पर बातचीत हुई होगी। आप सबने विवेकानंदजी की जयंती भारत में पिछले 80-90 सालों से जब से विवेकानंदजी कहीं अपने शरीर को छोड़कर गए, भारत ने विवेकानंदजी के बारे में जयंतियां काफी मनाई, बहुत जयंती मनती है, लंबी-लंबी चर्चा होती है। उत्तिष्ठ भारत: जागृत युवा हो, जगे, खड़ा हो, अपने गोल के तरफ जाएं, लंबी-लंबी बातें होती रहती है। ये सब बातें आपने बहुत सुनी होगी। मैं इस पर कोई बात नहीं करना चाहता, इसलिए बात नहीं करना चाहता, क्योंकि मुझे लगता है कि हम उसके आदि हो चुके हैं। उनसे कहीं कुछ होता जाता नहीं। हम हर साल आते हैं, 12 तारीख को कार्यक्रम मनाते हैं, विवेकानंदजी की बात करके चले जाते हैं। जब गेट से बाहर निकलते हैं तो हम वही होते हैं जैसे हम आए थे। चार बार सलूट मारकर चले आते हैं कि हां विवेकानंदजी मान गए आपको, आदमी था।
असल में होगा यह कि अगर उन तरीकों से बात कीजिए जैसे बातें अक्सर होते रहती है। हम विवेकानंदजी के ऊपर काफी बड़ी-बड़ी बातें करेंगे। बताएंगे उन्होंने जिंदगी में क्या किया ? कहां से कहां खिंचकर लेकर चले गए। हिन्दुस्तान में तो जो किया सो किया, विदेशों में क्या कर दिया, क्योंकि मजेदार बात तो यह है न कि हम अपने लोगों को तब तक नहीं पूजते, जब तक वो विदेशों में कुछ न कर ले। अगर चार छह बार कुछ विदेशों में कर लिया है तो हम उनको पूज भी लेते हैं, पूछ भी लेते हैं, लेकिन अगर वो विदेशों के चार गोरों के बीच बैठकर कोई बात नहीं कर पाता, हम इतने इंफिरियरीटी काम्पलेक्स से भरे हुए हैं। हम विवेकानंदजी की बात करना चाहते हैं और दुर्भाग्य है कि आज कहना पड़ता है।
आज बहुत बड़ा दुर्भाग्य है कि आज वो लोग जो विवेकानंदजी की जयंती आज इतने दिनों से मना रहे हैं, आज अगर विवेकानंदजी की बात 11 सितंबर और अमेरिका के उद्घाटन से करनी पड़ती है तो मुझे इस बात का बड़ा दुख है, रंज है। रंज इस बात का है कि विवेकानंदजी ने जो बात 11 तारीख को कही थी, 11 सितंबर को, उसके पहले उन्होंने चीख-चीख कर वो बातें कही थी, जो बातें भारत आज तक उच्चारित नहीं कर पाया। मुझे रंज है, इस बात का दुख है। मैंने नहीं सोचा था कि ये बात घटेगी और इस बात का भी दुख हुआ कि मुझे लगा था कि कम से कम ये जगह है, जहां विवेकानंदजी के बारे में हमने बड़ा सोचा है, विवेक बसो प्रतिष्ठान है। मुझे लगा था कि हम एक ऐसी बात करेंगे कि हम 11 सितंबर को भूल जाएं। जहां पर भी विवेकानंदजी की बात होती है, हम पहली बार बात की शुरूआत करते हैं कि 11 सितंबर को उस समय अमेरिका में क्या था ? उस रिलेजियस कांफ्रेंस में? भारत ने उसे काफी महिला मंडित भी किया, क्योंकि हम तब तक लोगों को नहीं चुनते। मैं आया तो मुझे सबसे पहले दिखाई दिया एमबीए, यूएसए, मैंने इसको मिटाने की कोशिश की, फिर चूंकि ध्यान चल रहा था, ध्यान के बीच में आवाज आ रही थी कि मिटा नहीं पाया, क्योंकि हम लोगों को तब तक स्वीकार नहीं करते, जब तक हमें दिख न जाए कि कहीं बाहर की दुनिया में उन्होंने कुछ सिद्ध कर दिया है।
मुझे समझ में नहीं आता कि हम गीता और रामायण को मान कैसे लेते हैं। पता नहीं क्यों पिछले सौ दो सौ सालों से गीता, रामायण और शिवलिंग की बात भी कर रहे हैं, क्योंकि गीता को तो शोपेन हावर ने खोजा, उसके पहले हम खोज कर बहुत कुछ कर चुके थे। ये भारत का बहुत दुर्भाग्य है, हम विवेकानंदजी की बात करते हैं कि हमें जागृत होना है, गोल देखना है, ये करना है, वो करना है, हम सभी इन्फीरियरिटी काम्पलेक्स से भरे हुए हैं। वहीं से शुरूआत करना चाहूंगा, क्योंकि वही जड़ है।
एक बड़ी मजेदार घटना होती है भारत के संदर्भ में और कहिये ये भारत का महा दुर्भाग्य रहा है कि भारत इस संदर्भ में विवेकानंदजी को लेकर कभी कोई बात करना नहीं चाहा। विवेकानंदजी के पीछे चलने वाले लोग कभी इन बातों पर कोई उल्लेख भी नहीं कर सके। आपको पता है विवेकानंदजी ने अपने जीवन के जो भावी क्षण थे, जिन क्षणों के बारे में मठ से लेकर रामकृष्ण मिशन जब भी बात करता है, मुझे माफ करिएगा, अगर कोई भी बात आपकी आस्थाओं पर चोट लगे, इसका कारण नहीं है, लेकिन विवेकानंदजी पर बात हो रही है और उस ओजस्वी शब्दों से नहीं होगी, जिसको लेकर विवेकानंदजी चले तो उनका अपमान हो जाएगा।
आपको पता है कि विवेकानंदजी ने अपने भावी जीवन के कितने दिन जिस भावी जीवन को मठ से लेकर रामकृष्ण मिशन तक बड़ी संकल्पनाओं से हो हल्ला किया जाता है, कितने दिन उन्होंने भारत में गुजारे, किसी को कोई आइडिया है, कोई रु आइडिया, कोई रफ आइडिया। उन्होंने अपने चौदह साल, जिन चौदह सालों में विवेकानंदजी ने वो जो कुछ भी किया, जिससे रामकृष्ण मिशन निकलकर आया या जिसके कारण कहीं मठ बने या जिसके कारण हम हजारों किताबें विवेकानंदजी की देख पाते हैं, उनके बहुमूल्य चौदह सालों में से उन्होंने करीबन आठ साल विदेशों में गुजारे।
हमारे लोग कहते हैं कि विदेशों में शिक्षा दे रहे थे। बता रहे थे कि क्या चल रहा है, हिन्दू पाठ कर रहे थे। जहां तक मेरी समझ जाती है, विवेकानंदजी को वो आठ साल विदेशों में इसलिए गुजरने पड़े, क्योंकि भारत रिसेप्टीव नहीं था, उनके आठ सालों को अपने पास खींच लेने के लिए। अगर भारत रिसेप्टीव होता तो विवेकानंदजी जैसा आदमी जो भारत के एक-एक कण को एक परमाणु बम बनाने की क्षमता रखता था, वो अपने आठ बहुमूल्य साल कभी विदेशों की धरती पर खाक छानते हुए नहीं गुजारता। चूंकि वो आठ साल भारत ने खोए, क्योंकि भारत रिसेप्टिव नहीं था, भारत विवेकानंद जी जैसे व्यक्ति के विचारों को छूने में उनके विचारों के ऊपर चलने में। हमने बात की 100 युवाओं को लेने में कि एक युवा उनके सामने दिखाई नहीं दिया तो उन्होंने कहा कि खोज तो कहीं न कहीं करनी होगी, उनको खुद पलायन करना पड़ा। आठ साल उन्होंने बाहर बिताए।
यह दुर्भाग्य है भारत का, महादुर्भाग्य है। दुर्भाग्य इसलिए भी है कि अक्सर ऐसी घटनाएं भारत में होती है कि भारत तब तक अपने जो मौलिक विचार हैं, जिन विचारों से भारत कहीं बन सकता है, हो सकता है, हम उनको तब तक अपने हाथों की कोई पीर नहीं देते हैं, जब तक दुनिया के बाकी लोग उनके ऊपर अपनी टिप्पणियां करके उनको फ्रूटफुल सिद्ध न कर दें। अगर वो सिद्ध कर दे तो हम भी मान लेते हैं। कितने लोग राजयोग, सहजयोग, क्रियायोग किस-किस की बात विवेकानंदजी ने की। पूरा भाषण जो विवेकानंदजी ने दिया था, भारत की किताबों में उसको इतनी बार प्रिंट किया गया है कि अगर हम लिटरेली देखें तो पिछले साठ साल भारत की आजादी के बाद प्रतिदिन कहीं न कहीं किसी न किसी नए लिटरेचर में वो विवेकानंदजी का जो भाषण था, प्रतिदिन प्रिंट हुआ है।
हम खूब लंबी-लंबी उसके ऊपर बात करते हैं कि क्या कहा ? कहां से क्या बातें कही ? कहां से शुरू, क्या सर्व धर्म इसकी उसकी सब बातें करते हैं। कल एक छोटी सी बात हुई थी कि प्रोफेसर साहब थे, उन्होंने मेरी बात करते हुए कहा कि राष्ट्रवादी व्यक्ति राष्ट्र की बातों को लेकर कहीं, चूंकि विवेकानंदजी का नाम देखा तो अक्सर लगता है कि जो लोग विवेकानंदजी की बात करने वाले हैं, वो ठेठ नेशनलिस्ट होना ही चाहिए और मजेदार बात है, यह दूसरा महादुर्भाग्य है कि विवेकानंदजी को मैं आज कहना यह चाहता हूं कि विवेकानंदजी को जिन अर्थों में हमें समझना चाहिए था, उन अर्थों में जब हम उन्हें देख न पाए तो उससे घटनाएं क्या घटी ? मैं बिल्कुल बात नहीं करूंगा कि विवेकानंदजी कितने महान थे, क्या थे। हम सब जानते हैं वो क्या थे, कोई इसकी जरूरत नहीं, लेकिन दुर्भाग्य इन बातों का है कि विवेकानंदजी को हम वैसा क्यों न देख पाए, जिसको देखने के कारण शायद हमारी दृष्टि से हमारे अंदर कोई बदलाव हो जाता। उसी तारतम्य में एक-एक करके कुछ बातों तक आऊंगा। कोई बहुत बड़ी टिप्पणी नहीं करनी, क्योंकि मैं शैलेशजी से पूछ रहा था, शैलेश जी चूंकि विवेकानंदजी के मठ से काफी, रामकृष्ण मिशन से बहुत दिनों से जुड़े हुए हैं तो निकलते निकलते पूछा कि बताओ कि बात चलती क्या है ? क्या लोग बात करते हैं ? क्योंकि हर साल तो जयंती मनती है, आखिर बात होती क्या है ? क्योंकि पहला कार्यक्रम है, जब मुझे किसी जयंती में विवेकानंदजी के ऊपर बोलने के लिए बुलाया गया है। उन्होंने बोला बात चलती क्या है ? तो मुझे शैलेशजी बता रहे थे कि कोई शिक्षा के ऊपर बात करता है, कोई बात करता है कि रामकृष्ण परमहंस ने क्या किया ? मैंने बोला जब लोग इतनी सारी बातें कर ही लेते हैं तो बढि़या होगा। इन बातों पर कोई बात की न जाए, क्योंकि लोग इससे बोर हो चुके हैं और सैकड़ों बार शायद इनको सुन भी लिया होगा और शायद हो सकता है, वही सुनने के लिए दोबारा आए होंगे। बड़े अच्छे लोग हैं। मैं रियली कहता हूं कि अभी भी भारत के अंदर और खासकर गांवों में इन छोटे शहरों में बड़े अच्छे लोग रहते हैं कि एक ही बात को दस बार सुनने के लिए हम बार-बार आ जाते हैं। बड़ी अच्छाई है। विवेकानंदजी ने अपने एक-एक बात जो मैं बार-बार पूछता रहा, इस कार्यक्रम के पहले भी और जब भी विवेकानंदजी की बात निकली कि क्या हम उन कारणों पर जा सके, हमने देखना चाहा कि आखिर वो कारण क्या थे, जिनसे विवेकानंदजी जैसे व्यक्ति बनते हैं, क्या कारण होते हैं ? आखिर ऐसे कौन से रिजन हैं, जिसके कारण कहीं कोई नरेन्द्र दत्त विवेकानंद बनकर पूरे, हम सभी को उनके ऊपर विचार विमर्श करने पर भी मजबूर कर देता है, वो कारण क्या हैं ? क्योंकि इसके ऊपर बात करना कि विवेकानंदजी कितने महान थे, उन्होंने क्या-क्या दिया, कितना बढि़या मिशन बनाया, वो सब तो होती रहती है, चल भी रही होगी कहीं न कहीं।
आज एक बात जरूर कहना चाहूंगा कि विवेकानंदजी, आज मैंने बताया कि टीवी देख रहा था, बहुत दिनों बाद देखी। विवेकानंदजी एक बात कहते थे - 'मानव सेवा परम सेवा' 'सर्विस'। विवेकानंदजी पहले व्यक्ति थे बीते 100 साल में, उसके बाद तो उसका चलन आ गया। अब तो सारे कोई भी धर्म का आदमी है, वो जब तक सर्विस की बात न करें, तब तक उसकी धार्मिकता जायज नहीं ठहराई जाती। उसको सर्विस देना बहुत जरूरी है और मजेदार बात यह है कि आज सारे धर्म के मंचों से धार्मिक संस्थाओं से सर्विस की बात निकलकर आ रही है, अच्छी बात है। यह विवेकानंदजी की देन है।
मैं समझता हूं कि उन्होंने मानव सेवा परम सेवा की बात नहीं की होती तो भारत का धार्मिक जगत् जिस तरीके से समाज की बातों को लेकर मौन और निष्ठुर था, वैसा ही वो बचा रह जाता। एक बड़ी अच्छी बात विवेकानंदजी के कारण हुई, पता नहीं आपसे लोगों ने कहा होगा या नहीं कि आज एक-एक धार्मिक प्रतिष्ठान, मैं उनको प्रतिष्ठान कहता हूं। एक-एक धार्मिक प्रतिष्ठान और कोई भी महाराज और कोई भी बाबा वो जब तक समथिंग, सो काल्ड मानव सेवा के बारे में बात न करे या आपसे इसको लेकर डोनेशन न ले, तब तक वो काम होता नहीं, तब उसको धार्मिक नहीं माना जाता। ये बड़ा महत्वपूर्ण कार्य विवेकानंदजी के कारण हुआ, क्योंकि अगर उन्होंने मानव सेवा परम सेवा की अगर टिप्पणी नहीं की होती तो भारत का धार्मिक महत्व, जितना निष्ठुर समाज के औचित्य के बाबत् था, उतना ही निष्ठुर हमेशा बचा रह गया होता।
असल में आज मैं यहां से सवाल रखना चाहता हूं, कल भी उसके ऊपर बातचीत की थी, आज उस बातचीत को एक स्टेप और आगे ले जाना चाहता हूं कि आखिर वो कारण क्या थे, जिसके कारण कहीं कोई एक नरेन्द्र दत्त विवेकानंद बन जाता है, क्योंकि अगर हम उन कारणों के ऊपर थोड़ी सी भी बातचीत कर सके, सोच सके, जान सके तो एक संभावना तो दे पाएंगे कि अगर थोड़ा सा भी कोई प्रेम उस आदमी के बारे में है, जिसके प्रति हमने दीपक जलाई है, अगर थोड़ा सा भी प्रेम है तो बाकी सारी किताबें पब्लिश करने के अलावा उनके नाम पर 10 लाख पेड़ लगाने के अलावा, एक रामकृष्ण मिशन की स्थापना करने के अलावा हम शायद एक कोशिश कर सकेंगे कि वो जो 100 युवा जिनको वो खोज रहे थे, हम एक ही युवा इस अपने नगर, अपने शहर से या हो सके अपने घर से बनाने की कोशिश तो शुरू करें, क्योंकि विवेकानंदजी के बारे में एक नहीं 10 करोड़ किताबें लिख दी जाए, कोई अर्थ नहीं निकलता जब तक विवेकानंद जी जैसा व्यक्तित्व इस धरा पर चले नहीं। हम कितनी भी किताबें लिख दें, कितने भी प्लांटेशन करा दें, कितने भी रामकृष्ण मिशन की स्थापनाएं करा दें, कितने भी स्कूल खोल दें, जो स्कूल चल रहे हैं, अर्थ कुछ नहीं निकलता, जब तक उस जैसे व्यक्ति को हम दोबारा अपने, कहीं समाज के बीच से चलने पर मजबूर न कर दें। उन कारणों पर जाना बड़ा जरूरी है कि वो कारण क्या थे, जिनके कारण से कहीं कोई नरेन्द्र दत्त विवेकानन्द बनने पर मजबूर हो जाता है, क्योंकि ऐसा तो है नहीं कि विवेकानंदजी के पहले कोई युवा नहीं थे। ऐसा भी नहीं है कि रामकृष्ण परमहंस के पहले कोई महान गुरु नहीं थे, लेकिन वो संभावनाएं क्या थी, जिसका इस्तेमाल विवेकानंदजी ने भी किया और जिसका पूरी तरीके से रामकृष्ण परमहंस जी ने भी किया। आखिर वो रिजन क्या थे ? उन रिजनिंग के ऊपर अगर बात हुई तो मैं समझता हूं, जो भी हमारा 10 मिनट, 15 मिनट का कार्यक्रम होगा, वो कार्यक्रम मेरी नजरों में सफल हो जाएगा, क्योंकि हम उठाएंगे उस कारणों को जहां से नरेन्द्रदत्त विवेकानंद बनता है।
कल मैंने एक बात की कि आध्यात्म का महीन से महीन अर्थ है एक गहरा सवाल। एक बड़ी मजेदार घटना होती है कि विवेकानंदजी बचपन से एक गहरे सवाल पर सोचते हुए चलते रहते हैं कि क्या ईश्वर है, पूछते रहते हैं, चलते रहते हैं। हमको बड़ा मामूली लगता है कि हम सभी पूछ लेते हैं आकर कि भई ध्यान और समाधी क्या है, थोड़े बहुत जवाब मिल जाते हैं। कमरों के बाहर निकलते हैं तो ध्यान भी खो जाता है, समाधी भी खो जाती है। हम पूछ लेते हैं कि आत्मा परमात्मा है। आत्मा परमात्मा की यहां पर बात ही अगर कुछ रियली ठीक-ठाक लोग हैं, वो यहां से निकलते हैं, सब भूलकर चले जाते हैं, पान खाते हैं और रास्तों का सफर करके निकल जाते हैं। अक्सर यह होता है।
असल में दो बड़ी मजेदार बात है, जिन बातों को लेकर कहीं विवेकानंद जैसा व्यक्तित्व तैयार खड़ा होता है। एक बात है कि एक सवाल जो विवेकानंदजी ने प्रति क्षण शायद अपने आपसे भी किया और उस हरेक व्यक्ति से किया, जिसको उसने कहीं धार्मिक अनुसंज्ञा या धार्मिक रिसेप्टीविटी का व्यक्ति माना। सवाल करता रहा कि क्या ईश्वर है। साथ में एक बड़ी मजेदार बात यह है कि कभी उसका पता नहीं था, नरेन्द्रदत्त को पता नहीं था कि ईश्वर है कि नहीं, लेकिन इस सवाल को उसने तब तक नहीं छोड़ा, जब तक उसको जवाब हॉं या नहीं में मिल नहीं गया। एक सवाल और एक सवाल के बाद हमेशा प्रति क्षण खोज कि इसका जवाब या तो मुझे हॉं में मिल जाए और या न में और जवाब की बात नहीं, मेरे अनुभव में आ जाए कि हॉं ये बात है या नहीं। बड़ी महत्वपूर्ण बात है यही विवेकानंद का संपूर्ण जीवन है कि एक सवाल जिसके प्रति वे प्रति क्षण पड़े रहे, जब तक उन्हें वो व्यक्ति नहीं मिल गया, जिसकी आंखों में देखकर उन्होंने पाया कि हाँ इसके पास जाकर मैं तो जवाब पा जाउंगा, हाँ में या तो जवाब पा जाउंगा ना में। उस सवाल के पीछे प्रतिक्षण पड़ा रहा।
विवेकानंदजी जैसा चरित्र पैदा होता है, जब जीवन के अंदर प्रतिक्षण सवाल होते हैं और सवालों के प्रति हमारी गहरी आस्था भी होती है। मैं कहूं तो सवाल कुछ ऐसे ही कर लेते हैं कुछ लोग। मैं बहुत सारे कार्यक्रमों में जाता हूं और बहुत सारे कार्यक्रमों में सवाल केवल कुछ लोग इसलिए करते हैं कि यंग बच्चा है, देख लेते हैं जानता कितना है। तो मैं कितना जानता हूं इसको जानने के लिए वो कुछ सवाल करते हैं या दो तिहाई समय ये होता है कि चलो ना यार बोल तो रहा है, करने के लिए कर लेते हैं न, जाता क्या है। एक बहुत बड़े धार्मिक व्यक्ति हुए थे, जिन्होंने पहली बार-गुर्जीएफ हुए थे, पश्चिम में रशिया से आए थे। भारत में उन्होंने काफी सफर तय किया और भारत से बहुत कुछ सीखकर वापस रशिया गए, फिर फ्रांस चले गए, सब कुछ। तो भारत में उन्होंने देखा कि लोग तो यहां पर प्रतिक्षण सवाल करते हैं। पश्चिम में ऐसा होता नहीं था, पश्चिम में प्रथा ही सवालों की नहीं थी। बता दिए जाए, उतना हमको ले लेना है। सवालों की कोई प्रथा नहीं थी। जब गुर्जीएफ यहां से वापस गए तो उन्होंने लोगों से कहा कि सवाल पूछो, बिना सवाल के धर्म नहीं मिल सकता तो लोग उनके पास कुछ भी सवाल पूछ भी लिया करते थे तो गुर्जीएफ ने फिर क्या किया कि वो एक सवाल के पूछने के पहले उस जमाने में या तो दस रूबल लेते थे या जब यूरोप में थे तो फ्रेंक लेते थे कि अगर आपको सवाल पूछने है तो इतने पैसे दे दो, नहीं तो सवाल का जवाब नहीं दूंगा, क्योंकि हम तो सवाल इसलिए भी पूछ लेते हैं कि हमारे अंदर उन सवालों के उत्तर से कुछ बदल सकता है या नहीं, इससे हमें मतलब नहीं है। मैं कल की बात को आगे निकालकर लेकर जाना चाहता हूं कि विवेकानंद जी को बनने के लिए जीवन में चाहिए, जीवन के समष्टि के प्रति सवाल हो, उन्होंने सवाल ईश्वर के संबंध में किया था। जरूरी नहीं कि हम भी ईश्वर के संबंध में करें। सवाल किया और सवाल से बड़ी महत्वपूर्ण बात है कि सवाल किया था, जिससे वाकई उनकी जिंदगी के अंदर कुछ बदल सकता था। सवाल केवल सवाल करने के लिए नहीं किया था। हम तो कर लेते हैं, क्योंकि लगता है कि चलो ना यार बोल रहा है, कर लेते हैं, होता है या नहीं होता है, कमरे के बाहर गए, सवाल भी खो गया, जवाब भी खो गया।
एक दूसरी बड़ी महत्वपूर्ण बात जो विवेकानंद जी के संबंध में है वो ये कि सवाल से यात्रा शुरू करता है, बाद में अनुभवों की बात करता है कि केवल उत्तर पा लेने के बाद भी रुकता नहीं है, वो उत्तर को देखना चाहता है कि ये उत्तर मुझ पर भी संभव हो सकता है। नहीं तो उन्होंने तो जवाब दे ही दिया था, परमहंस ने जवाब दिया था कि जैसा मैं तुझे देख रहा हूं, वैसे प्रतिक्षण ईश्वर को भी देखता हूं। तब विवेकानंद जी कहते हैं कि जवाब बस वही, अब तो मुझे भी दिखाओ कि अब बात केवल उसकी नहीं कि उत्तर मिल गया, वो तो एक उत्तर मिल गया, अब जब तक मेरे अनुभव में न आए, वो उत्तर कितना सही है, इसकी जानकारी मुझे पता तक नहीं है।
बात सवालों की नहीं है, सवाल एक श्रृंखला है कि अगर सवाल जवाब बने और जवाब अगर बिना अनुभवों के रह जाए तो वह सवाल नपुंसक है, वो जवाब भी नपुंसक है, क्योंकि अगर हम यहां सवाल कर रहे हैं, मुझसे सवाल कर लिया जाए कि क्या ईश्वर है, मैं कह दूं ईश्वर है और हम अगर उसके ऊपर खोज करके ईश्वर को पाने की यात्रा पर ना जा पाए तो मेरा पूरा जवाब भी नपुंसक हो जाता है, आपका पूरा सवाल भी नपुंसक हो जाता है, क्योंकि कहीं से कोई प्रोटेंसी नहीं ला सकता।
हम ऐसे स्थल पर आ रहे हैं, जहां पर प्रभु विराजमान है, जिससे इस पूरी पृथ्वी का, इस पूरे संसार की नियम और मर्यादा चलती है, हम उसके मंदिर पर प्रवेश कर रहे हैं और जाकर अपने-अपने जूते और चप्पल देखकर आइए इतनी अव्यवस्था, इस व्यवस्था के मंदिर तक आने के लिए, समझ में नहीं आती। असल में हम आदतों में जीते हैं। हमारा मनुष्य होना तभी तक है, जब हम आदतों में हैं, जब हम आदतों के विरोध में खड़े हो जाते हैं, जब आदतें पीछे हो जाती है और जब हम कहीं आगे निकल जाते हैं, तब वो यात्रा शुरू होती है, जिसे मैं नरेन्द्रदत्त से विवेकानंद की कहता है, जिसे मैं नर से नारायण की यात्रा कहता हूं, क्योंकि हमारी बाकी सब कुछ आदतें ही है। हम आदतों से जाकर पैर भी छू लेते हैं, मालाएं भी पहना देते हैं, आरतियां भी कर देते हैं, श्रृंगार भी कर लेते हैं, सब कुछ हम कर लेते हैं, क्योंकि हमारे पूर्वज वैसा करते रहे, हमारे पिताजी वैसा करते रहे और चूंकि हम आदतों में जीते हैं इसलिए आदतों से निकलकर कभी कोई सवाल भी नहीं कर पाते।
दोनों बातें असल में जुड़ी है। जब तक आदतों में जीते हैं, तब तक जो हमारे पहले के लोग, घर के आजू बाजू के लोग करते रहे हैं। हम भी करते रहते हैं। अगर बाजू वाला यहां से निकलकर, एक बड़ी मजेदार घटना होगी, अगर यहां पर सभी को प्लेट्स दी जाए और बाजू वाला यहां पर फेंक दे, तो 10 में से 9 मौकों पर हम सब यहां पर फेंक कर चले जाएंगे, क्योंकि बाजू वाले ने किया है तो मैं भी कर देता हूं, जाता क्या है? अगर वहीं एक व्यक्ति उस प्लेट को बाहर फेंक आए, एक आदमी और पीछे जाए तो बाकी सारे लोग बिना कुछ साफ-सफाई को छोड़कर वहां पर चले जाएंगे।
मजेदार एक और घटना होती है कि आजकल भारत के शहरों में, यह विदेशों से बात आई है कि चार छह लोग ग्रुप में खड़े होकर कहीं कुछ करने लगते हैं तो सारे के सारे लोग खड़े होकर देखने लगते हैं कि ऊपर चल क्या रहा है ? उनको पता नहीं कि हो क्या रहा है और सच्चाई वाली बात है, आपको ट्राई करना हो तो अपने चौराहों पर कर लीजिएगा कि अगर चार लोग अपनी टोपी निकालकर कुछ खोकर देखने लगे तो दस लोग और आकर देखेंगे, देख क्या रहे हैं ये ? चल क्या रहा है ? हम आदतों में जीते हैं, क्योंकि भीड़ की मानसिकता आदत की है। धर्म का पथ, आध्यात्म का पथ, एकत्व का पथ है, अकेले चलने का पथ है, इसलिए वो आदतों के विरोध में खड़ा है, क्योंकि जब तक हम आदतों में जीएंगे, तब तक भीड़ में ही जीते रहेंगे।
धर्म की यात्रा अकेले की यात्रा है, अकेले ही चलना है और जब अकेले चलना है तो 100 क्या कर रहे हैं वो नहीं, हम क्या कर सकते हैं, ये देखने की बात है। ये विवेकानंद होने का परिचय है। असल में भारत की आज महा दुर्दशा है। समाज के मायनों में अगर देखी जाए, मैं कोई बात न करूं। किन्हीं चीजों की बात हम केवल इसकी कर लें कि हम प्रतिदित करते क्या हैं ? सड़क की गंदगी हो, घरों के आसपास की गंदगी हो, सड़कों पर हम किस तरीके से चलते हैं, हम कपड़े कैसे पहनते हैं, हमारे घर पर क्या-क्या होता है, हम क्या-क्या खरीदते हैं ? अगर हम सबको एक-एक करके देखने जाएं तो हम पाएंगे कि हम वो चीजें केवल इसलिए ही करते हैं, क्योंकि कोई दूसरा कर रहा होता है। अगर दूसरे न करें तो हम भी न करें। चूंकि दूसरों के घरों में एयर कंडीशनर आता है तो हम सब बोलते है कि एक दिन मेरे घर पर भी होना चाहिए। वो आया क्यों इसकी वजह नहीं है, दूसरों के घर पर है इसलिए हमारे घर पर भी आ जाता है। दूसरे गलत तरीके से गाड़ी चलाते हैं तो हम कहते हैं वो तो चला रहा है, अपने को चलाने में क्या दिक्कत है, हम भी चला लेते हैं। हम आदतों में जीते हैं और आदतों में जीने के बाद फिर दूसरे हमारे जिंदगी को ढाल देते हैं। हम कभी, हम क्या हो सकते हैं स्वतंत्रता के क्षणों में, हम कभी इसका फैसला कर ही नहीं पाते, न हम अपने बच्चों में इन फैसलों को लाने देते हैं।
विवेकानंद एक स्वतंत्रता है, एक गहरी स्वतंत्रता, अगर वो स्वतंत्रता न होती तो वो भी उन्हीं धर्मों और चौराहों पर चलते रहते, जितने लाख और करोड़ों लोग पहले चलते रहे हैं, उन्हें तोड़ा नहीं, मैं न तो आदतों में जीऊंगा और आदतों में जीऊंगा तो सवाल करूंगा और सवाल करूंगा तो जवाब पर नहीं रूकूंगा, अनुभव तक जाऊंगा। भीड़ जाती हो या न जाती हो। विवेकानंद जिस समय सवाल करने जाते थे, पता नहीं आपने कितनी उन कहानियों को सुना है। उनके साथ एक ग्रुप चला करता था, एक ग्रुप हुआ करता था। उस ग्रुप में से कई लोग विवेकानंदजी का कहते रहे कि तुम जिस रास्ते पर हो, क्योंकि विवेकानंदजी, आज तो हम सब कह देते हैं कि बड़ी एरीस्ट्रोक्रेटिक फैमली। अगर लोग इंटरनेट में जाते हैं, विकी पीडिया में जाकर थोड़ा डिफीनेशन देख लेंगे एरीस्ट्रोक्रेटिक। रियालिटी यह है कि विवेकानंदजी के घर पर खाने के लिए रोटी नहीं होती थी। विवेकानंदजी अपनी माँ से झूठ बोलते थे। जाते थे कहीं बाहर घर पर रोटी नहीं होती थी। अन्न इतना कम होता था कि या तो माँ खा सके या तो वो खा सके। तो वो कहते थे सुबह से कि आज तो मेरा जेवन बाहर है, मैं तो खाना बाहर से खाकर आऊंगा। शाम में निकल जाते थे रात में घर लौटते थे, झूठी डकार लेते हुए कहते थे कि खाना तो बड़ा मजेदार मिला, क्योंकि उन्हें पता था कि मॉं कहीं घर पर अकेली भूखी रह जाएगी। यह सिचवेशन थी उनकी। कोई एरीस्ट्रोक्रेट परिवार से नहीं आते थे, जो आज अंग्रेजी भाषी लोग बताना चाहते हैं, क्योंकि गरीब परिवारों से कहना, असल में हुआ यह है कि जो हमारे धर्म पुरुष रहे हैं, लगता है कभी-कभी राम राजसीय परिवार से निकलकर आए हैं, कृष्ण भी वहीं से आता है। हमारे महावीर भी वहीं से आते हैं, बुद्ध भी वहीं से आते हैं। सवाल उठता है न और अक्सर जो सोकाल्ड इंटेलेक्चुअल लोग होते हैं वो लोग कहते हैं विवेकानंद गरीब परिवार से हैं, जमेगा नहीं। भगवान बनाना थोड़ा मुश्किल हो जाएगा। रियालिटी है, सच्चाई है, बहुत सच्चाई है इस बात में कि थोड़ा मुश्किल हो जाए, मुश्किल हो जाएगा तो एरोसिटोक्रेट फैमली से आ जाते हैं, बता दिया जाता है तो विवेकानंदजी घर पर इतनी गरीबी थी कि उनके लोग, उनका ग्रुप कहता था कि विवेकानंद इस रास्ते पर जाओगे तो भूखों ही मरोगे, लेकिन उनका ग्रुप कभी उनको बाधित नहीं कर पाया। वो ग्रुप कुछ भी कहता रहा, वो ग्रुप डायनामिजम से आगे निकलकर, आगे निकलकर कहीं अपनी इंडीविजुवल स्वतंत्रता पर खड़े हुए और बोले नहीं मैं इस परतंत्रता के दीपक से आगे निकलूंगा, क्योंकि नरेन्द्रनाथ से विवेकानंद की जो यात्रा है, वो यात्रा परतंत्रता की यात्रा नहीं हो सकती।
ये दूसरी बात वो कहना चाहते थे कि विवेकानंद होना, विवेकानंद जैसे रास्तों पर चलना, ये आदतों और भीड़ के विरोध में खड़ा है, अगर हम जब तक भीड़ के विरोध में। मैं इस कार्यक्रम को भी कहूंगा कि हमें ऐसे कार्यक्रम भी नहीं करना चाहिए। यदि आज लाखों करोड़ों लोग जो भीड़ के समानांतर कर रहे हैं, वैसे ही कार्यक्रम आज हम यहां पर भी कर रहे हैं। ऐसे अगर विवेकानंदजी की कोई बात हो तो शायद हमें उनका रूपांकन कुछ दूसरा रखना चाहिए। मेरी आज हाथ जोड़कर विनती है कि अगर मेरी बातें दो कौड़ी की भी सही लगे तो हो सके तो विवेकानंदजी के जब कार्यक्रम हो तो भीड़ से ऐसे हटकर हो कि विवेकानंदजी अगर शब्दों में न पहुंच पाए, कम से कम उस आदर्श तक तो पहुंच पाए कि हम कोई आदर्श तो रख सके कि अगर भीड़ से हटकर परम स्वतंत्रता वाला व्यक्ति था तो उसके लिए उसकी सारी कोशिशें हम भीड़ से हटकर परम स्वतंत्रता की ही करेंगे।
एक घटना है कि विवेकानंद जैसा व्यक्ति जब भीड़ से हटकर एक नए आर्डर का, एक मोलेस्टी का एक नए तरीके के सन्यासी का आर्डर तैयार करता है और एक दुर्घटना भारत में होती है। बहुत दुर्घटनाएं भारत में हुई है, एक दुर्घटना होती है कि विवेकानंद जैसा आदमी जिसने हिन्दू की परिभाषा जो दी, जिस परिभाषा को लेकर शायद दुनिया का कोई भी व्यक्ति हिन्दू शब्द के ऊपर शायद अपनी दूसरी प्रतिक्रिया रखेगा। विवेकानंदजी ने चीख-चीख कर कहा था कि जब मैं इस देश लौटता हूं तो मुझे लगता है कि हिन्दू होना गर्व है और वही एक समस्या है कि 1980 में रामकृष्ण मिशन ने कोर्ट में जाकर ये लिखकर दिया था कि हम हिन्दू नहीं है, हमें मायनोरिटी आर्डर में डाल दो। ये दुर्घटना भारत में होती है कि विवेकानंद जैसा आदमी, जिसने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की, उसके पीछे चलने वाले लोग 1980 में सुप्रीम कोर्ट में ये दाखिला देते हैं कि हम हिन्दू नहीं हैं।
ये दुर्घटना होती है, क्योंकि लोग समझ नहीं पाते कि विवेकानंद था क्या ? जो भीड़ कर रही होती है वो 1980 में विवेकानंद जी के पीछे चलने वाले रामकृष्ण मिशन के लोग भीड़ के तारतम्य में वहीं कर लेते हैं। वो करना बड़े अच्छे तरीके से चाहते थे, पूरी कहानी कह दूं, वो करना इसलिए चाहते थे कि सरकार एक नया नियम ला रही थी। नियम यह था कि जो सोकाल्ड मेजोरिटी के जो हिन्दू के इंस्टीट्यूशन हैं, उन पर सरकारी कंट्रोल आते जाएगा। विवेकानंद जी के लोग ये चाहते नहीं थे, क्योंकि वो क्वालिटी बरकरार रखना चाहते थे, लेकिन फंडिंग की प्राब्लम थी, सरकार से फंडिंग लेते थे और सरकार कहती कि तुम तो हिन्दू हो तो तुमको तो मिजोरिटी के इंस्टीट्यूशन के नियम में आना पड़ेगा, क्योंकि मायनोरिटी के जो इंस्टीट्यूशन हैं, एजुकेशनल इंस्टीट्यूशन उनको फुल फ्रीडम है, मिजोरिटी के इंस्टीट्यूशन को फ्रीडम नहीं है, लेकिन भीड़ सारी यही कह रही थी, सारी भीड़ अपने आपको मायनोरिटी में सिद्ध करने में लगी थी, जिससे वो सरकारी फायदा उठा पाए।
विवेकानंद जी के लोग भी फायदा उठाने के लिए वही काम करते, जो पूरा मुल्क कर रहा था, लेकिन वो समझ नहीं पाए कि विवेकानंद जी जैसा आदमी भीड़ से हटकर कहीं रामकृष्ण मिशन की स्थापना करता है और हम उनके पीछे चलने वाले लोग केवल चार'छह हजार करोड़ के पैसे के लिए फायदे के लिए हम वही चीजें करें, जो बाकी लोग कर रहे हैं। क्या यह विवेकानंद जी के पूरे सिद्धांतों की आत्महत्या होगी या नहीं। यह सवाल मैं रामकृष्ण मिशन के पीछे छोड़ना चाहूंगा। पूरा सम्मान है उन्होंने जो कार्यक्रम किए, बड़े मजेदार किए, लेकिन कहीं विवेकानंद जी को समझने में थोड़ी सी भूल की, क्योंकि विवेकानंद की महिमा इतनी है, उन्होंने कार्यक्रम किए महान किए, लेकिन महिमा मंडन ही होता रहा, विवेकानंद बनाने की प्रक्रिया नहीं चली। मैं समझता हूं रामकृष्ण मिशन जिस क्षण विवेकानंद जी ने किया होगा, उनकी उम्मीद थी कि मेरे जीवन में जितना बचता है, मैं 10 युवा रामकृष्ण ने तो एक विवेकानंद दिया है, क्या एक विवेकानंद 10-20 उन जैसे लोगों को पैदा नहीं कर पाएगा। इसलिए उन्होंने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की थी कि चलो एक कोशिश तो हो शिक्षा के संस्थानों से, जहां ऐसे बीज दिए जाएं, जिन बीजों से एक नहीं 10 लाख रामकृष्ण के शिष्य विवेकानंद जैसे लोग इन सड़कों और चौराहों की प्रतिक्षण यात्रा कर पाएं, नहीं तो इसके अलावा अगर विवेकानंद जी कुछ और सोच सकते हैं तो पता नहीं और क्या सोच सकते हैं। ये एक महत्वपूर्ण बात रही विवेकानंद जी की, जो थोड़ी बहुत मैं बात करना चाहता था, मुझे यह भी लग रहा था कि कहीं ऐसा न हो कि लोग कहे हम तो सुनने आए थे कि विवेकानंद होना क्या है और मुझे लगता है कि अगर विवेकानंद जी की सारी बातें प्रतिक्षण रोज चौराहों पर चल रही है, बड़े-बड़े स्मारक लग गए हैं।
मजेदार घटना है तीन चार साल पहले की, जब इनकी एक फोटो दिल्ली के संसद के हाल में लगनी थी, कहीं कुछ हो रहा था, बड़ा हंगामा हुआ था। हंगामा इसलिए हुआ था कि हम तो संतों को भी बांट लेते हैं कि किस पार्टी से कौन आता है। एक घटना हुई, विवेकानंद जी जिस समय पर जागे थे, जब विवेकानंद बने थे, उन्होंने एक बात बड़े स्पष्ट तरीके से देखी थी, जो भारत में घट रही थी कि भारत का जो आध्यात्मिक और धार्मिक जगत् था वो भारत की समाज और व्यवस्था के प्रति पूर्णत: उदासीन था। गहरी उदासीनता थी। समाज में क्या हो रहा है, समाज किस तरफ जा रहा है, लोग क्या हो रहे हैं, उसके तरफ कोई जागृति नहीं थी। विवेकानंद जी ने धर्म को गहरे और आध्यात्म को गहरी अनुभूति के साथ जब समझा तो पाया कि जो समाज में घट रहा है, जो राष्ट्र में हो रहा है, जो एक समुदाय में घट रहा है, उसका बहुत बड़ा कारण यह भी है कि कहीं धर्म और आध्यात्म की गहरी दीक्षा लोगों तक पहुंचा भी नहीं पा रहे हैं तो उन्होंने एक नया नारा दिया, उन्होंने एक नई बात कही कि अगर धर्म की बात करने वाले लोग हैं, अगर वो समाज के अंदर क्या हो रहा है, समाज किन रास्तों पर जा रहा है, अगर उसकी बात वो नहीं कर पाए तो धर्म को भी शायद पहुंचाने में अक्षम हो जाएंगे।
अगर दूसरे अर्थों में कहूं तो विवेकानंद जी ने कहा या सोचा होगा कि कितने भी राजयोग, धर्मयोग, कर्मयोग, ध्यान योग की बात हो जाए, लेकिन सड़कों पर चलता हुआ आदमी अगर समाज में फैली हुई इस गहरी परतंत्रता को प्रतिक्षण स्वीकार करते जाता है तो गीता का सार, अर्जुन और कृष्ण व्यर्थ है। इसको लेकर उन्होंने कहीं समाज के प्रति इस फैली हुई उदासीनता को निकालने के लिए धर्म को कहीं समाज के बीच भी जो चल रहा है, उसको देने का रास्ता अपनाया।
एक परतंत्रता थी, अंग्रेजों का युग था, दास्ता थी। एक दूसरी बात हम समझ नहीं पाए और होता भी यह है कि धर्म की बात करने वाले लोग धर्म की बात करके, क्योंकि धर्म की बात हिन्दुस्तान में करिए, पांच दस हजार की भीड़ मिलना बड़ी आसान बात है, मिल ही जाएगी। आप कहीं पर भी भागवत करिए, पांच-दस हजार की भीड़ मिल ही जाएगी। धर्म की बात करिए भीड़ मिलना स्वाभाविक है। बड़े इन्सेक्यूर लोग हैं, ईश्वर के पास जाना जरूरी होता है। इतनी इंसेक्यूरिटी है तो लोग धर्म की बात कर-करके आज राजनीति के संघर्षों में धर्म को ही खींच ले रहे हैं कि धर्म की बात कर रहे हैं और धर्म की गद्दी से और जब मौका मिलता है राजनीति के गलियारों में चौराहों पर पहुंचकर राजनीति की गहरी पिपाशा करने लगते हैं। मैं बिल्कुल विवेकानंद जी की बात से सहमत हूं कि धर्म समाज के प्रति उदासीनता नहीं है, लेकिन साथ ही साथ धर्म और आध्यात्म की बात करने वाले लोग अगर जो आज एक्टिव राजनीति में जाने की कोशिश करने लगे, उसे दिन धर्म खत्म हो जाएगा, क्योंकि रास्ता दिखाने वाले लोग, जरा सोचिए, अगर जो ट्राफिक लाईट होती है, मैं समझता हूं धर्म की बात करने वाले लोग समाज की भूमिका में ट्राफिक लाईट की बात है कि बताए दिशा कहां है, मार्ग बता रहे हैं कि दिशा कहां है। अगर दिशा बताने वाला यंत्र ही खुद ही रास्तों पर ट्रेवल करने लगे तो रास्ता बताने वाला बचेगा कौन ? बड़ी भगदड़ मच जाएगी, सब अंडबंड हो जाएगा। हो यही रहा है कि जिन्हें रास्ता बताना चाहिए वो देखते हैं रास्ता बताने से अच्छा है रास्ते पर चलने में ज्यादा मजा है। चलो चल ही लेते हैं। महाराज बनने वाले लोग अक्सर राजनीति की लंबी यात्रा कर ही लेते हैं, कर ही रहे हैं और भारत उनको करने भी दे रहा है।
विवेकानंद जी ने राष्ट्रवाद की जब बात की थी, कहा था कि ऐ धर्म में जीने वाले तुम लोग प्रतिक्षण धर्म के आधार से समाज के प्रति नए नियम बनाने वाले तुम लोग अगर समाज की इस उदासीनता में जीवन बिताकर लेकर गए तो धर्म भी शून्य है तो जरा जागो, जागो देखो कि तुम जो धर्म से पार हो क्या, समाज में उसके प्रति कोई काम कर पा रहे हो कि नहीं हुआ। उल्टा यह है कि बीते 10, 15, 20 सालों में धर्म की बात करने वाले लोग, गीता बाचने वाले लोग मुख्यमंत्री बन गए। गीता छूट गई, मुख्यमंत्रीत्व आ गया। धर्म की बात करने वाले लोग अक्सर राजनीति के चौराहों पर ऐसी अच्छी-अच्छी बात करते हैं कि लगता है कि राजनीति वाले धर्म में आ जाए ज्यादा बेहतर होगा और धर्म वाले राजनीति में चले जाएं, ज्यादा बेहतर होगा।
ये दूसरा दुर्भाग्य है विवेकानंद जी को न समझ पाने का कि समाज में फैली हुई उदासीनता के प्रति हमारा एक चैतन्य होने से ज्यादा लोगों ने धर्म की बात करते-करते राजनीति कर ली और इससे हुआ यह कि राजनीति करने वाले लोगों ने धर्म के प्रति वो सवाल खड़े कर दिए कि इनके पास जवाब देना ही मुश्किल हो गया। धर्म को जो काम द्रोपदी के साथ कहीं उन कौरवों के हाल में हुआ था, आज राजनीति के मैदान में वही काम धर्म के लोगों के साथ होता है कि धर्म का आदमी ये उसे पता नहीं कि किस सब्जेक्ट पर उसे बात करनी भी है कि नहीं, लेकिन वो जाकर चिल्लाने लगता है, हश्र यह होता है कि टीवी वे कार्यक्रमों में बालीवुड की हीरोईनें भगवा पहने हुए साधु को ऐसी-ऐसी बातें करके चले जाती है कि लोग कहते हैं बढि़या कहा, बहुत उटपटांग बात करता था।
एक कार्यक्रम था, मैंने देखा वो कार्यक्रम चार-पांच साल पहले। कोई बात चल रही थी, साधु सन्यासी आकर अक्सर बात करते हैं कि कपड़े कम हो रहे हैं, ये हो रहा है। कर लोग रहे हैं टीवी में, वही सब कुछ चल रहा है, लेकिन साधु सन्यासी सबसे पहले आकर कहते हैं कि सब कुछ कम हो रहा है, गलत है, ऐसा है वैसा है। तो डीबेट चल रही थी, डीबेट के बीच में कुछ बालीवुड की हीरोईनें बैठी हुई थीं, चूंकि वो वाचाल है वो कहती हैं उस सन्यासी को, बड़ा महान सन्यासी है वह भारत का, हम जानते हैं, हम सब जानते हैं उन्हें। कहती है बाबूजी आप तो धर्म की बात करने वाले हैं। आप तो सन्यासी आदमी हैं, ब्रम्हचारी आदमी हैं। ब्रम्हचारी हो जाने के बाद आपको दूसरों के कपड़े क्यों दिखाई देते हैं ? उनके पास जवाब देने के लिए कुछ बचा नहीं था।
मैं कहना यह चाहता हूं कि आज हो यह रहा है कि समाज के नियमन और धारणा और समाज के प्रति चेतनता की बात करने से ज्यादा हम राजनीति और राजनीति में धर्म के लोग कैसे पहुंच जाए, इसकी चेष्टा ज्यादा करते हैं। राष्ट्रवादी होने का मतलब हम यही समझते हैं कि जब तक यहां झंडे रखकर हम जब तक राजनीति के मैदानों और संसदें क्या तय कर रही हैं, उसकी बात न करें तो जब तक धर्म का होना हुआ ही नहीं। राष्ट्रवादी बनने का अर्थ हम नहीं समझ पाते कि जो विवेकानंद जी ने कहा था कि जिन-जिन क्षणों से होकर, विवेकानंद जी से एक बार पूछा गया था अमेरिका में कि बताओ नेशनलिस्ट होने का भाव क्या है ? तो बोले तुम समझ नहीं पाओगे, क्योंकि राष्ट्रीयता बड़ी दूसरी बात है। वापस लौटकर आते हैं चैन्नई पहुंचते हैं, चैन्नई की एक सभा होती रहती है, चूंकि पेपर बहुत दिनों बाद उस समय मिलते थे, वही सवाल किया जाता है कि साहब तुमने वह ? तो उत्तर नहीं दिया था, बताओ न राष्ट्रीयता होने का मतलब क्या है, भाव क्या है ? बोले हां इस समय बता सकता हूं विवेकानंद जी ने कहा था कि राष्ट्रीयता वह भावना है, जहां हम जीवन के महा आदर्शों से अनुभव लेकर समाज के बीच हम बांट क्या सकते हैं, अपने भूक्षेत्र को हम दे क्या सकते हैं ? जब हम उस क्षेत्र में कार्य करते हैं तो वह राष्ट्रीयता होती है।
बड़ी महत्वपूर्ण बात कही थी, लेकिन भारत इसको रिपिट नहीं कर पाया। वो राष्ट्रवादी संत और विचारक की बात करता रहा, लेकिन राष्ट्रीयता और राष्ट्रवादी होने का अर्थ क्या है ? विवेकानंद जी का कहना ये था कि जो महान दान की परंपरा धर्म की रही है न कि जो हमने पाया हम जाकर सामने वाले को थोड़ा दे देते हैं। विवेकानंद जी वही बात कह रहे हैं कि तुमने जो महान जीवन के आदर्शों से जो पाया समाज के बीच अगर थोड़ा बहुत दे दो तो तुम्हारी राष्ट्रीयता घटित हो गई। यही राष्ट्रवादिता है। इसकी बात हम कम से कम करते रहे। अंत में लगभग-लगभग 46 मिनट हो चुके हैं। जैसे मैंने कल भी कहा था कि 45 मिनट के बीच लोग सोने लग जाते हैं, फिर कान शायद खुले रहते हैं, बंद नहीं कर सकते। थोड़ी आंखें भी खुली रहती है, दिमाग बंद हो जाता है। विज्ञान कह रहा है। अंत में एक बात जरूर कहूंगा और इसकी समाप्ति करूंगा, अगर कोई सवाल होंगे विवेकानंद जी के संबंध में बिल्कुल स्वागत करूंगा कि हो सके हम विवेकानंद की एक खोज शुरू हो, अगर हम अगले साल आप सब लोग, प्रति साल अगर यहां आते हैं, विवेकानंद की जयंती में अगर विवेक बसव प्रतिष्ठान के तरफ से कार्यक्रम होते हैं, आप लोग आते हैं तो ये कार्यक्रम, ये विवेक बसव प्रतिष्ठान और आप सब लोग मिलकर एक बात करें कि अगले एक साल तक खोज चले कि जरा हम जाने तो कि वो क्या था, जिसने नरेन्द्रनाथ को विवेकानंद बनने पर मजबूर कर दिया था। अगले साल अगर कोई कार्यक्रम हो यहां पर बच्चों, बूढ़ों, जवानों के बीच तीन दिन तक डिबेट चले कि भैईया विवेकानंद बना क्यों था ? हमारे जैसे लोग रोज आकर चिल्लाकर बोलकर चले जाएंगे, लेकिन हमारी खोज कब शुरू होगी। हो बात तो ये कि अगले साल तीन दिन के अगर कार्यक्रम यहां होते हो तो सब कुछ चले बच्चे, बूढ़ों और महिलाओं के बीच जरा बात तो चले वाद-विवाद तो चले कि आखिर विवेकानंद जैसे इंसान बनते कब हैं, होते कब हैं ? कैरेक्टर्स क्या होते हैं ? हम कैरेक्टर्स तो डिफाईन करें। महिमा तो हम करते रहेंगे, महिमा करके सारे महापुरुषों को चौराहों पर लाकर खड़ा कर दिया। हर चौराहे पर एक महापुरुष है, उसी महापुरुष के साथ कहीं महादुर्भाग्य हो जाता है। चौराहे पर महापुरुष है और एक इंट्रेस्टिंग बात है कि जैसे हम चौराहे पर महापुरुष खड़े कर देते हैं तो हम उसके आदी हो जाती हैं। फिर ज्यादा सोचना नहीं पड़ता है। गांधी खड़े ही हैं, हर चौराहे पर हैं गांधीजी। अंबेडकर हर चौराहे पर आ ही गए। राम, कृष्ण सबके मंदिर इतने बने हैं ही, खोजना क्या है, जरूरत क्या है। हम उनके आदी हो जाते हैं, इसलिए हम चौराहों पर हम बड़े निपुण लोग हैं, हिंदुस्तान बड़ा निपुण राष्ट्र है। वो साईकोजिकल साईंस का सबसे ज्यादा बड़ा, मतलब हमारे यहां डाक्टर्स की जरूरत नहीं है, हमारे यहां बड़े-बड़े सायक्लोजिस्ट हैं।
तो अगले साल अगर कोई कार्यक्रम करना हो तो हो ये कि अगले तीन दिन वाद-विवाद चले और वाद-विवाद भी वो वाद-विवाद जहां लड़ने के लिए नहीं, जहां खोजने के लिए हम तैयार करें अपने बच्चों को, हम खुद स्वयं कि आखिर, हम डिफाईन क्या करेंगे कि वाट इज विवेकानंद, क्या है विवेकानंद ? कैरेक्टर्स को तो डिफाईन करें, अगर हो सके तो मेरे को लगता है कि विवेकानंद जी के बारे में चाहे 10 हजार किताबें बाहर मिले आपको फ्री में या ना मिले। विवेकानंद समाज में जीने की एक संकल्पना हम जरूर दे जाएंगे और अगर एक ऐसे कार्यक्रम शुरू हुए तो कम ये हो सकता है कि कल इनको देखकर कि हटकर कोई आदमी कार्यक्रम हो रहा है भीड़ से हटकर कोई कुछ कर रहा है। कोई आदमी आपसे भी हटकर एक नई चीज कर सके। जब नई चीज करेगा तो हो सकता है कि कल ऐसे साधन बने, जहां पर हम अपने बच्चों को, हम अपने लोगों को तैयार कर सके, नरेन्द्रनाथ से विवेकानंद की यात्रा में।
अगर वो यात्रा हुई तो फूल मालाएं चढ़े न चढ़े विवेकानंद जीता जागता हमारे बीच रहेगा। नहीं तो मालाएं चढ़ती रहेगी, विवेकानंद डस्ट में जाता रहेगा। हर साल डस्ट, फिर वहीं निकालना पड़ेगा, लगाना पड़ेगा, मालाएं चढ़ानी पड़ेगी। विवेकानंद कहीं दिखेता नहीं। बहुत कम समय गया है, सौ साल हुए हैं, राम को हम कितना खोज पाए। लोग तो ये भी कहते हैं कि राम हुए या नहीं हुए। क्या पता इतिहास बताता नहीं है। कम से कम इस व्यक्ति के बारे में तो लिखित इतिहास है, अगर हम खोज करने जाएंगे तो हम सब पा लेंगे कि वो हुआ था या नहीं, मिला नहीं, मिला था कि नहीं, जगा था कि नहीं था कुछ की नहीं।
अगर इनकी खोज करने गए तो रामकृष्ण की भी खोज कर पाएंगे। रामकृष्ण की खोज करेंगे तो उनके जैसे वो जिनसे-जिनसे मिलते थे, वो कहीं शिव की बात करते थे, रामकृष्ण ऐसे व्यक्ति रहे भारत के, जब उन्होंने प्रेक्टिकल करना शुरू किया। ये जो सर्वधर्म स्वभाव बात है न, ये सर्वधर्म स्वभाव कह देने से ऐसे नहीं आ जाता। इसके लिए जीना पड़ता है। रामकृष्ण ने अपने जीवन में छह महीने पूरी तरीके से एक मुसलमान बनके जीया और देखा कि इस्लाम में क्या हो सकता है। छह महीने पूरी तरीके से क्रिश्चयन बनकर जीया, टोटल क्रिश्चयन, जो क्रिश्चयन करते हैं वो ही करते थे, फिर काली के पास नहीं जाते थे। अच्छा मैंने पूरी तरीके से जैसा एक व्यक्ति इस्लाम की दुनिया आता है वैसे कपड़े, वैसा सब कुछ, वैसा करके जीया और देखा कि क्या होता है। उनका सर्वधर्म स्वभाव और जब बाहर निकलते हैं और जब देखना होता, अरे बोले वो तो यार शंकर वाला आदमी है। अरे यार वो राम वाला आदमी है, वो कृष्ण वाला आदमी है, फिर तो और होगा तो बोले रामकृष्ण वल्लभ वाला है, वो इसका वाला है। हमारा फिर सारा सर्वधर्म यहीं पर आकर खत्म हो जाता है, कल किसी ने सवाल किया कि धर्म क्या है ? मैंने कहा धर्म, मर्म है, करुणा है, आज कहता हूं कि धर्म विभाजन से एकत्र की यात्रा है। डिवाईड से यूनिटी की तरफ चलना, ये धर्म है।
अधर्म विखंडन है यूनिटी से खंड-खंड में टूट जाना ये अधर्म है। सर्वधर्म स्वभाव में अगर फिर हम विवेकानंद जी की खोज कर पाए, कैरेक्टर्स जान पाए तो रामकृष्ण की खोज करेंगे। रामकृष्ण की खोज करने जाएं तो फिर सैकड़ों अनेकों चीजें आएगी। बेसिकली हम इस धर्म के बहुत विस्तार को छू पाएंगे। खोज बड़ी सौ साल के इतिहास से शुरू होती है। हाथ जोड़कर कहना हूं कि अगर विवेकानंद जी के ऊपर कोई कार्यक्रम करना हो तो ऐसे कार्यक्रम हो तो शायद विवेकानंद जी के लिए कोई प्रणाम की वस्तु बनेंगे भी, नहीं तो ऐसे कार्यक्रमों से मुझे लगता है कि विवेकानंद जी ऊपर बैठकर कहीं न कहीं तिलमिलाकर कह रहे होंगे कि यार मैंने तो कहा था कि युवाओं जागो और तुम तो जैसी भीड़ सो रही है, वैसी नींद में तुम भी चले गए। पर अगर वाकई हमें उत्तिष्ठ भारत की कल्पना ले रहे हैं तो उठें और रियली जागे, जाग सके तो विवेकानंद भी जागेंगे, कहीं हम सबके बीच चलेंगे। आप सभी को बहुत-बहुत प्रणाम।
सादर प्रणाम।
विवेकानंद और भारत
सादर प्रणाम।
आप सभी को प्रणाम करता हूं। विवेकानंदजी का दिन है विषय भी विवेकानंदजी ही हैं। विवेकानंदजी तक पहुंचे, इसके पहले थोड़ी सी बातें जो डाक्टर साहब ने कही, वो बातें विवेकानंदजी के तारतम्य में भी कहीं आएगी और मुझे लगता है कि शायद उन्होंने भी बहुत गहराई के साथ इन बातों पर चिंतन किया होगा, तब जाकर उनका अपनी जिंदगी में कार्यपालन भी किया। एक छोटी सी बात मेरे से किसी ने पूछी कि मालाएं क्यों नहीं ? मालाएं आखिर क्यों नहीं लेते और पैर क्यों नहीं छूने देते ? मजेदार तथ्य यह है कि जब इतिहास ने, जब भारतीय इतिहास ने इस सिविलाईजेशन ने, जब मालाओं की पद्धति लाई थी, जब मालाएं पहनाई जाती है तो बहुत इंट्रेस्टिंग बात होती है। उस समय माला पहनने के लिए आपको माला पहनाने वालों से ज्यादा झुकना पड़ता है। सम्मान लेने से पहले सम्मानित होने वाले को जो सम्मान दे रहा होता है, उससे ज्यादा झुकना पड़ता है, नम्र होना पड़ता है, तब कहीं जाकर सम्मान की वजह बनती है। ये माला की बहुत महान बात रही, हम भूलते चले गए। आज माला पहनने वाले अकड़कर कई मालाएं ले लेते हैं।
आज सुबह से मैं यूजली कभी टीवी देखने का समय मिलता नहीं न मेरी कोई रूचि है तो आज सुबह शैलेश जी हमारे साथ थे, बातचीत चल रही थी तो मैं सुबह से बैठकर जो भी समय मिला, आज वो जितने ये 24 बाई 7 धर्म मिलते हैं, उन सारी जगहों पर आज मैं टीवी पर देख रहा था। जितने टीवी चैनल हो सकते हैं, सारे चैनल। मजेदार बात जो मुझे दिखाई दी जहां तथ्य, जब सम्मान जिन्हें देना चाहिए, उन्हें जितना विनम्र होना चाहिए, कहीं दंभ बहुत ज्यादा दिखाई दिया कि जिन मंचों पर सम्मान की भावनाएं जब आए, वहां से इतनी नम्रता टपके कि सम्मान देने वाला भी करुणा से घायल हो जाए, लेकिन सम्मान से ज्यादा दंभ इतना ज्यादा दिखा कि मुझे लगा कि अभी तक तो जो, मैं इसीलिए..., मैं आज पांच छह साल हो चुके हैं, जब से मैं इस दौर में आया, मैंने कभी मालाएं नहीं स्वीकारी, क्योंकि इसका बड़ा आध्यात्मिक कारण था और दूसरा कारण यह था कि हम मालाएं पहनाने के इतने आदि हो चुके हैं कि हम माला किसको और कब पहनानी है, यह भी भूल चुके हैं। मैंने कहा कम से कम एक बात तो शुरू की जाए कि माला अगर 10-20-50 बार नहीं पहनी गई तो शायद लोग सवाल करना तो शुरू करेंगे कि मालाएं पहनाई क्यों न जाए ?
एक मजेदार बात रही कि विवेकानंदजी की बातचीत होती है। कई सालों से कार्यक्रम यहां पर चल रहे हैं। बहुत सारे लोग यहां पर आए हैं और आए होंगे। कई तरीकों से विवेकानंदजी पर बातचीत हुई होगी। आप सबने विवेकानंदजी की जयंती भारत में पिछले 80-90 सालों से जब से विवेकानंदजी कहीं अपने शरीर को छोड़कर गए, भारत ने विवेकानंदजी के बारे में जयंतियां काफी मनाई, बहुत जयंती मनती है, लंबी-लंबी चर्चा होती है। उत्तिष्ठ भारत: जागृत युवा हो, जगे, खड़ा हो, अपने गोल के तरफ जाएं, लंबी-लंबी बातें होती रहती है। ये सब बातें आपने बहुत सुनी होगी। मैं इस पर कोई बात नहीं करना चाहता, इसलिए बात नहीं करना चाहता, क्योंकि मुझे लगता है कि हम उसके आदि हो चुके हैं। उनसे कहीं कुछ होता जाता नहीं। हम हर साल आते हैं, 12 तारीख को कार्यक्रम मनाते हैं, विवेकानंदजी की बात करके चले जाते हैं। जब गेट से बाहर निकलते हैं तो हम वही होते हैं जैसे हम आए थे। चार बार सलूट मारकर चले आते हैं कि हां विवेकानंदजी मान गए आपको, आदमी था।
असल में होगा यह कि अगर उन तरीकों से बात कीजिए जैसे बातें अक्सर होते रहती है। हम विवेकानंदजी के ऊपर काफी बड़ी-बड़ी बातें करेंगे। बताएंगे उन्होंने जिंदगी में क्या किया ? कहां से कहां खिंचकर लेकर चले गए। हिन्दुस्तान में तो जो किया सो किया, विदेशों में क्या कर दिया, क्योंकि मजेदार बात तो यह है न कि हम अपने लोगों को तब तक नहीं पूजते, जब तक वो विदेशों में कुछ न कर ले। अगर चार छह बार कुछ विदेशों में कर लिया है तो हम उनको पूज भी लेते हैं, पूछ भी लेते हैं, लेकिन अगर वो विदेशों के चार गोरों के बीच बैठकर कोई बात नहीं कर पाता, हम इतने इंफिरियरीटी काम्पलेक्स से भरे हुए हैं। हम विवेकानंदजी की बात करना चाहते हैं और दुर्भाग्य है कि आज कहना पड़ता है।
आज बहुत बड़ा दुर्भाग्य है कि आज वो लोग जो विवेकानंदजी की जयंती आज इतने दिनों से मना रहे हैं, आज अगर विवेकानंदजी की बात 11 सितंबर और अमेरिका के उद्घाटन से करनी पड़ती है तो मुझे इस बात का बड़ा दुख है, रंज है। रंज इस बात का है कि विवेकानंदजी ने जो बात 11 तारीख को कही थी, 11 सितंबर को, उसके पहले उन्होंने चीख-चीख कर वो बातें कही थी, जो बातें भारत आज तक उच्चारित नहीं कर पाया। मुझे रंज है, इस बात का दुख है। मैंने नहीं सोचा था कि ये बात घटेगी और इस बात का भी दुख हुआ कि मुझे लगा था कि कम से कम ये जगह है, जहां विवेकानंदजी के बारे में हमने बड़ा सोचा है, विवेक बसो प्रतिष्ठान है। मुझे लगा था कि हम एक ऐसी बात करेंगे कि हम 11 सितंबर को भूल जाएं। जहां पर भी विवेकानंदजी की बात होती है, हम पहली बार बात की शुरूआत करते हैं कि 11 सितंबर को उस समय अमेरिका में क्या था ? उस रिलेजियस कांफ्रेंस में? भारत ने उसे काफी महिला मंडित भी किया, क्योंकि हम तब तक लोगों को नहीं चुनते। मैं आया तो मुझे सबसे पहले दिखाई दिया एमबीए, यूएसए, मैंने इसको मिटाने की कोशिश की, फिर चूंकि ध्यान चल रहा था, ध्यान के बीच में आवाज आ रही थी कि मिटा नहीं पाया, क्योंकि हम लोगों को तब तक स्वीकार नहीं करते, जब तक हमें दिख न जाए कि कहीं बाहर की दुनिया में उन्होंने कुछ सिद्ध कर दिया है।
मुझे समझ में नहीं आता कि हम गीता और रामायण को मान कैसे लेते हैं। पता नहीं क्यों पिछले सौ दो सौ सालों से गीता, रामायण और शिवलिंग की बात भी कर रहे हैं, क्योंकि गीता को तो शोपेन हावर ने खोजा, उसके पहले हम खोज कर बहुत कुछ कर चुके थे। ये भारत का बहुत दुर्भाग्य है, हम विवेकानंदजी की बात करते हैं कि हमें जागृत होना है, गोल देखना है, ये करना है, वो करना है, हम सभी इन्फीरियरिटी काम्पलेक्स से भरे हुए हैं। वहीं से शुरूआत करना चाहूंगा, क्योंकि वही जड़ है।
एक बड़ी मजेदार घटना होती है भारत के संदर्भ में और कहिये ये भारत का महा दुर्भाग्य रहा है कि भारत इस संदर्भ में विवेकानंदजी को लेकर कभी कोई बात करना नहीं चाहा। विवेकानंदजी के पीछे चलने वाले लोग कभी इन बातों पर कोई उल्लेख भी नहीं कर सके। आपको पता है विवेकानंदजी ने अपने जीवन के जो भावी क्षण थे, जिन क्षणों के बारे में मठ से लेकर रामकृष्ण मिशन जब भी बात करता है, मुझे माफ करिएगा, अगर कोई भी बात आपकी आस्थाओं पर चोट लगे, इसका कारण नहीं है, लेकिन विवेकानंदजी पर बात हो रही है और उस ओजस्वी शब्दों से नहीं होगी, जिसको लेकर विवेकानंदजी चले तो उनका अपमान हो जाएगा।
आपको पता है कि विवेकानंदजी ने अपने भावी जीवन के कितने दिन जिस भावी जीवन को मठ से लेकर रामकृष्ण मिशन तक बड़ी संकल्पनाओं से हो हल्ला किया जाता है, कितने दिन उन्होंने भारत में गुजारे, किसी को कोई आइडिया है, कोई रु आइडिया, कोई रफ आइडिया। उन्होंने अपने चौदह साल, जिन चौदह सालों में विवेकानंदजी ने वो जो कुछ भी किया, जिससे रामकृष्ण मिशन निकलकर आया या जिसके कारण कहीं मठ बने या जिसके कारण हम हजारों किताबें विवेकानंदजी की देख पाते हैं, उनके बहुमूल्य चौदह सालों में से उन्होंने करीबन आठ साल विदेशों में गुजारे।
हमारे लोग कहते हैं कि विदेशों में शिक्षा दे रहे थे। बता रहे थे कि क्या चल रहा है, हिन्दू पाठ कर रहे थे। जहां तक मेरी समझ जाती है, विवेकानंदजी को वो आठ साल विदेशों में इसलिए गुजरने पड़े, क्योंकि भारत रिसेप्टीव नहीं था, उनके आठ सालों को अपने पास खींच लेने के लिए। अगर भारत रिसेप्टीव होता तो विवेकानंदजी जैसा आदमी जो भारत के एक-एक कण को एक परमाणु बम बनाने की क्षमता रखता था, वो अपने आठ बहुमूल्य साल कभी विदेशों की धरती पर खाक छानते हुए नहीं गुजारता। चूंकि वो आठ साल भारत ने खोए, क्योंकि भारत रिसेप्टिव नहीं था, भारत विवेकानंद जी जैसे व्यक्ति के विचारों को छूने में उनके विचारों के ऊपर चलने में। हमने बात की 100 युवाओं को लेने में कि एक युवा उनके सामने दिखाई नहीं दिया तो उन्होंने कहा कि खोज तो कहीं न कहीं करनी होगी, उनको खुद पलायन करना पड़ा। आठ साल उन्होंने बाहर बिताए।
यह दुर्भाग्य है भारत का, महादुर्भाग्य है। दुर्भाग्य इसलिए भी है कि अक्सर ऐसी घटनाएं भारत में होती है कि भारत तब तक अपने जो मौलिक विचार हैं, जिन विचारों से भारत कहीं बन सकता है, हो सकता है, हम उनको तब तक अपने हाथों की कोई पीर नहीं देते हैं, जब तक दुनिया के बाकी लोग उनके ऊपर अपनी टिप्पणियां करके उनको फ्रूटफुल सिद्ध न कर दें। अगर वो सिद्ध कर दे तो हम भी मान लेते हैं। कितने लोग राजयोग, सहजयोग, क्रियायोग किस-किस की बात विवेकानंदजी ने की। पूरा भाषण जो विवेकानंदजी ने दिया था, भारत की किताबों में उसको इतनी बार प्रिंट किया गया है कि अगर हम लिटरेली देखें तो पिछले साठ साल भारत की आजादी के बाद प्रतिदिन कहीं न कहीं किसी न किसी नए लिटरेचर में वो विवेकानंदजी का जो भाषण था, प्रतिदिन प्रिंट हुआ है।
हम खूब लंबी-लंबी उसके ऊपर बात करते हैं कि क्या कहा ? कहां से क्या बातें कही ? कहां से शुरू, क्या सर्व धर्म इसकी उसकी सब बातें करते हैं। कल एक छोटी सी बात हुई थी कि प्रोफेसर साहब थे, उन्होंने मेरी बात करते हुए कहा कि राष्ट्रवादी व्यक्ति राष्ट्र की बातों को लेकर कहीं, चूंकि विवेकानंदजी का नाम देखा तो अक्सर लगता है कि जो लोग विवेकानंदजी की बात करने वाले हैं, वो ठेठ नेशनलिस्ट होना ही चाहिए और मजेदार बात है, यह दूसरा महादुर्भाग्य है कि विवेकानंदजी को मैं आज कहना यह चाहता हूं कि विवेकानंदजी को जिन अर्थों में हमें समझना चाहिए था, उन अर्थों में जब हम उन्हें देख न पाए तो उससे घटनाएं क्या घटी ? मैं बिल्कुल बात नहीं करूंगा कि विवेकानंदजी कितने महान थे, क्या थे। हम सब जानते हैं वो क्या थे, कोई इसकी जरूरत नहीं, लेकिन दुर्भाग्य इन बातों का है कि विवेकानंदजी को हम वैसा क्यों न देख पाए, जिसको देखने के कारण शायद हमारी दृष्टि से हमारे अंदर कोई बदलाव हो जाता। उसी तारतम्य में एक-एक करके कुछ बातों तक आऊंगा। कोई बहुत बड़ी टिप्पणी नहीं करनी, क्योंकि मैं शैलेशजी से पूछ रहा था, शैलेश जी चूंकि विवेकानंदजी के मठ से काफी, रामकृष्ण मिशन से बहुत दिनों से जुड़े हुए हैं तो निकलते निकलते पूछा कि बताओ कि बात चलती क्या है ? क्या लोग बात करते हैं ? क्योंकि हर साल तो जयंती मनती है, आखिर बात होती क्या है ? क्योंकि पहला कार्यक्रम है, जब मुझे किसी जयंती में विवेकानंदजी के ऊपर बोलने के लिए बुलाया गया है। उन्होंने बोला बात चलती क्या है ? तो मुझे शैलेशजी बता रहे थे कि कोई शिक्षा के ऊपर बात करता है, कोई बात करता है कि रामकृष्ण परमहंस ने क्या किया ? मैंने बोला जब लोग इतनी सारी बातें कर ही लेते हैं तो बढि़या होगा। इन बातों पर कोई बात की न जाए, क्योंकि लोग इससे बोर हो चुके हैं और सैकड़ों बार शायद इनको सुन भी लिया होगा और शायद हो सकता है, वही सुनने के लिए दोबारा आए होंगे। बड़े अच्छे लोग हैं। मैं रियली कहता हूं कि अभी भी भारत के अंदर और खासकर गांवों में इन छोटे शहरों में बड़े अच्छे लोग रहते हैं कि एक ही बात को दस बार सुनने के लिए हम बार-बार आ जाते हैं। बड़ी अच्छाई है। विवेकानंदजी ने अपने एक-एक बात जो मैं बार-बार पूछता रहा, इस कार्यक्रम के पहले भी और जब भी विवेकानंदजी की बात निकली कि क्या हम उन कारणों पर जा सके, हमने देखना चाहा कि आखिर वो कारण क्या थे, जिनसे विवेकानंदजी जैसे व्यक्ति बनते हैं, क्या कारण होते हैं ? आखिर ऐसे कौन से रिजन हैं, जिसके कारण कहीं कोई नरेन्द्र दत्त विवेकानंद बनकर पूरे, हम सभी को उनके ऊपर विचार विमर्श करने पर भी मजबूर कर देता है, वो कारण क्या हैं ? क्योंकि इसके ऊपर बात करना कि विवेकानंदजी कितने महान थे, उन्होंने क्या-क्या दिया, कितना बढि़या मिशन बनाया, वो सब तो होती रहती है, चल भी रही होगी कहीं न कहीं।
आज एक बात जरूर कहना चाहूंगा कि विवेकानंदजी, आज मैंने बताया कि टीवी देख रहा था, बहुत दिनों बाद देखी। विवेकानंदजी एक बात कहते थे - 'मानव सेवा परम सेवा' 'सर्विस'। विवेकानंदजी पहले व्यक्ति थे बीते 100 साल में, उसके बाद तो उसका चलन आ गया। अब तो सारे कोई भी धर्म का आदमी है, वो जब तक सर्विस की बात न करें, तब तक उसकी धार्मिकता जायज नहीं ठहराई जाती। उसको सर्विस देना बहुत जरूरी है और मजेदार बात यह है कि आज सारे धर्म के मंचों से धार्मिक संस्थाओं से सर्विस की बात निकलकर आ रही है, अच्छी बात है। यह विवेकानंदजी की देन है।
मैं समझता हूं कि उन्होंने मानव सेवा परम सेवा की बात नहीं की होती तो भारत का धार्मिक जगत् जिस तरीके से समाज की बातों को लेकर मौन और निष्ठुर था, वैसा ही वो बचा रह जाता। एक बड़ी अच्छी बात विवेकानंदजी के कारण हुई, पता नहीं आपसे लोगों ने कहा होगा या नहीं कि आज एक-एक धार्मिक प्रतिष्ठान, मैं उनको प्रतिष्ठान कहता हूं। एक-एक धार्मिक प्रतिष्ठान और कोई भी महाराज और कोई भी बाबा वो जब तक समथिंग, सो काल्ड मानव सेवा के बारे में बात न करे या आपसे इसको लेकर डोनेशन न ले, तब तक वो काम होता नहीं, तब उसको धार्मिक नहीं माना जाता। ये बड़ा महत्वपूर्ण कार्य विवेकानंदजी के कारण हुआ, क्योंकि अगर उन्होंने मानव सेवा परम सेवा की अगर टिप्पणी नहीं की होती तो भारत का धार्मिक महत्व, जितना निष्ठुर समाज के औचित्य के बाबत् था, उतना ही निष्ठुर हमेशा बचा रह गया होता।
असल में आज मैं यहां से सवाल रखना चाहता हूं, कल भी उसके ऊपर बातचीत की थी, आज उस बातचीत को एक स्टेप और आगे ले जाना चाहता हूं कि आखिर वो कारण क्या थे, जिसके कारण कहीं कोई एक नरेन्द्र दत्त विवेकानंद बन जाता है, क्योंकि अगर हम उन कारणों के ऊपर थोड़ी सी भी बातचीत कर सके, सोच सके, जान सके तो एक संभावना तो दे पाएंगे कि अगर थोड़ा सा भी कोई प्रेम उस आदमी के बारे में है, जिसके प्रति हमने दीपक जलाई है, अगर थोड़ा सा भी प्रेम है तो बाकी सारी किताबें पब्लिश करने के अलावा उनके नाम पर 10 लाख पेड़ लगाने के अलावा, एक रामकृष्ण मिशन की स्थापना करने के अलावा हम शायद एक कोशिश कर सकेंगे कि वो जो 100 युवा जिनको वो खोज रहे थे, हम एक ही युवा इस अपने नगर, अपने शहर से या हो सके अपने घर से बनाने की कोशिश तो शुरू करें, क्योंकि विवेकानंदजी के बारे में एक नहीं 10 करोड़ किताबें लिख दी जाए, कोई अर्थ नहीं निकलता जब तक विवेकानंद जी जैसा व्यक्तित्व इस धरा पर चले नहीं। हम कितनी भी किताबें लिख दें, कितने भी प्लांटेशन करा दें, कितने भी रामकृष्ण मिशन की स्थापनाएं करा दें, कितने भी स्कूल खोल दें, जो स्कूल चल रहे हैं, अर्थ कुछ नहीं निकलता, जब तक उस जैसे व्यक्ति को हम दोबारा अपने, कहीं समाज के बीच से चलने पर मजबूर न कर दें। उन कारणों पर जाना बड़ा जरूरी है कि वो कारण क्या थे, जिनके कारण से कहीं कोई नरेन्द्र दत्त विवेकानन्द बनने पर मजबूर हो जाता है, क्योंकि ऐसा तो है नहीं कि विवेकानंदजी के पहले कोई युवा नहीं थे। ऐसा भी नहीं है कि रामकृष्ण परमहंस के पहले कोई महान गुरु नहीं थे, लेकिन वो संभावनाएं क्या थी, जिसका इस्तेमाल विवेकानंदजी ने भी किया और जिसका पूरी तरीके से रामकृष्ण परमहंस जी ने भी किया। आखिर वो रिजन क्या थे ? उन रिजनिंग के ऊपर अगर बात हुई तो मैं समझता हूं, जो भी हमारा 10 मिनट, 15 मिनट का कार्यक्रम होगा, वो कार्यक्रम मेरी नजरों में सफल हो जाएगा, क्योंकि हम उठाएंगे उस कारणों को जहां से नरेन्द्रदत्त विवेकानंद बनता है।
कल मैंने एक बात की कि आध्यात्म का महीन से महीन अर्थ है एक गहरा सवाल। एक बड़ी मजेदार घटना होती है कि विवेकानंदजी बचपन से एक गहरे सवाल पर सोचते हुए चलते रहते हैं कि क्या ईश्वर है, पूछते रहते हैं, चलते रहते हैं। हमको बड़ा मामूली लगता है कि हम सभी पूछ लेते हैं आकर कि भई ध्यान और समाधी क्या है, थोड़े बहुत जवाब मिल जाते हैं। कमरों के बाहर निकलते हैं तो ध्यान भी खो जाता है, समाधी भी खो जाती है। हम पूछ लेते हैं कि आत्मा परमात्मा है। आत्मा परमात्मा की यहां पर बात ही अगर कुछ रियली ठीक-ठाक लोग हैं, वो यहां से निकलते हैं, सब भूलकर चले जाते हैं, पान खाते हैं और रास्तों का सफर करके निकल जाते हैं। अक्सर यह होता है।
असल में दो बड़ी मजेदार बात है, जिन बातों को लेकर कहीं विवेकानंद जैसा व्यक्तित्व तैयार खड़ा होता है। एक बात है कि एक सवाल जो विवेकानंदजी ने प्रति क्षण शायद अपने आपसे भी किया और उस हरेक व्यक्ति से किया, जिसको उसने कहीं धार्मिक अनुसंज्ञा या धार्मिक रिसेप्टीविटी का व्यक्ति माना। सवाल करता रहा कि क्या ईश्वर है। साथ में एक बड़ी मजेदार बात यह है कि कभी उसका पता नहीं था, नरेन्द्रदत्त को पता नहीं था कि ईश्वर है कि नहीं, लेकिन इस सवाल को उसने तब तक नहीं छोड़ा, जब तक उसको जवाब हॉं या नहीं में मिल नहीं गया। एक सवाल और एक सवाल के बाद हमेशा प्रति क्षण खोज कि इसका जवाब या तो मुझे हॉं में मिल जाए और या न में और जवाब की बात नहीं, मेरे अनुभव में आ जाए कि हॉं ये बात है या नहीं। बड़ी महत्वपूर्ण बात है यही विवेकानंद का संपूर्ण जीवन है कि एक सवाल जिसके प्रति वे प्रति क्षण पड़े रहे, जब तक उन्हें वो व्यक्ति नहीं मिल गया, जिसकी आंखों में देखकर उन्होंने पाया कि हाँ इसके पास जाकर मैं तो जवाब पा जाउंगा, हाँ में या तो जवाब पा जाउंगा ना में। उस सवाल के पीछे प्रतिक्षण पड़ा रहा।
विवेकानंदजी जैसा चरित्र पैदा होता है, जब जीवन के अंदर प्रतिक्षण सवाल होते हैं और सवालों के प्रति हमारी गहरी आस्था भी होती है। मैं कहूं तो सवाल कुछ ऐसे ही कर लेते हैं कुछ लोग। मैं बहुत सारे कार्यक्रमों में जाता हूं और बहुत सारे कार्यक्रमों में सवाल केवल कुछ लोग इसलिए करते हैं कि यंग बच्चा है, देख लेते हैं जानता कितना है। तो मैं कितना जानता हूं इसको जानने के लिए वो कुछ सवाल करते हैं या दो तिहाई समय ये होता है कि चलो ना यार बोल तो रहा है, करने के लिए कर लेते हैं न, जाता क्या है। एक बहुत बड़े धार्मिक व्यक्ति हुए थे, जिन्होंने पहली बार-गुर्जीएफ हुए थे, पश्चिम में रशिया से आए थे। भारत में उन्होंने काफी सफर तय किया और भारत से बहुत कुछ सीखकर वापस रशिया गए, फिर फ्रांस चले गए, सब कुछ। तो भारत में उन्होंने देखा कि लोग तो यहां पर प्रतिक्षण सवाल करते हैं। पश्चिम में ऐसा होता नहीं था, पश्चिम में प्रथा ही सवालों की नहीं थी। बता दिए जाए, उतना हमको ले लेना है। सवालों की कोई प्रथा नहीं थी। जब गुर्जीएफ यहां से वापस गए तो उन्होंने लोगों से कहा कि सवाल पूछो, बिना सवाल के धर्म नहीं मिल सकता तो लोग उनके पास कुछ भी सवाल पूछ भी लिया करते थे तो गुर्जीएफ ने फिर क्या किया कि वो एक सवाल के पूछने के पहले उस जमाने में या तो दस रूबल लेते थे या जब यूरोप में थे तो फ्रेंक लेते थे कि अगर आपको सवाल पूछने है तो इतने पैसे दे दो, नहीं तो सवाल का जवाब नहीं दूंगा, क्योंकि हम तो सवाल इसलिए भी पूछ लेते हैं कि हमारे अंदर उन सवालों के उत्तर से कुछ बदल सकता है या नहीं, इससे हमें मतलब नहीं है। मैं कल की बात को आगे निकालकर लेकर जाना चाहता हूं कि विवेकानंद जी को बनने के लिए जीवन में चाहिए, जीवन के समष्टि के प्रति सवाल हो, उन्होंने सवाल ईश्वर के संबंध में किया था। जरूरी नहीं कि हम भी ईश्वर के संबंध में करें। सवाल किया और सवाल से बड़ी महत्वपूर्ण बात है कि सवाल किया था, जिससे वाकई उनकी जिंदगी के अंदर कुछ बदल सकता था। सवाल केवल सवाल करने के लिए नहीं किया था। हम तो कर लेते हैं, क्योंकि लगता है कि चलो ना यार बोल रहा है, कर लेते हैं, होता है या नहीं होता है, कमरे के बाहर गए, सवाल भी खो गया, जवाब भी खो गया।
एक दूसरी बड़ी महत्वपूर्ण बात जो विवेकानंद जी के संबंध में है वो ये कि सवाल से यात्रा शुरू करता है, बाद में अनुभवों की बात करता है कि केवल उत्तर पा लेने के बाद भी रुकता नहीं है, वो उत्तर को देखना चाहता है कि ये उत्तर मुझ पर भी संभव हो सकता है। नहीं तो उन्होंने तो जवाब दे ही दिया था, परमहंस ने जवाब दिया था कि जैसा मैं तुझे देख रहा हूं, वैसे प्रतिक्षण ईश्वर को भी देखता हूं। तब विवेकानंद जी कहते हैं कि जवाब बस वही, अब तो मुझे भी दिखाओ कि अब बात केवल उसकी नहीं कि उत्तर मिल गया, वो तो एक उत्तर मिल गया, अब जब तक मेरे अनुभव में न आए, वो उत्तर कितना सही है, इसकी जानकारी मुझे पता तक नहीं है।
बात सवालों की नहीं है, सवाल एक श्रृंखला है कि अगर सवाल जवाब बने और जवाब अगर बिना अनुभवों के रह जाए तो वह सवाल नपुंसक है, वो जवाब भी नपुंसक है, क्योंकि अगर हम यहां सवाल कर रहे हैं, मुझसे सवाल कर लिया जाए कि क्या ईश्वर है, मैं कह दूं ईश्वर है और हम अगर उसके ऊपर खोज करके ईश्वर को पाने की यात्रा पर ना जा पाए तो मेरा पूरा जवाब भी नपुंसक हो जाता है, आपका पूरा सवाल भी नपुंसक हो जाता है, क्योंकि कहीं से कोई प्रोटेंसी नहीं ला सकता।
हम ऐसे स्थल पर आ रहे हैं, जहां पर प्रभु विराजमान है, जिससे इस पूरी पृथ्वी का, इस पूरे संसार की नियम और मर्यादा चलती है, हम उसके मंदिर पर प्रवेश कर रहे हैं और जाकर अपने-अपने जूते और चप्पल देखकर आइए इतनी अव्यवस्था, इस व्यवस्था के मंदिर तक आने के लिए, समझ में नहीं आती। असल में हम आदतों में जीते हैं। हमारा मनुष्य होना तभी तक है, जब हम आदतों में हैं, जब हम आदतों के विरोध में खड़े हो जाते हैं, जब आदतें पीछे हो जाती है और जब हम कहीं आगे निकल जाते हैं, तब वो यात्रा शुरू होती है, जिसे मैं नरेन्द्रदत्त से विवेकानंद की कहता है, जिसे मैं नर से नारायण की यात्रा कहता हूं, क्योंकि हमारी बाकी सब कुछ आदतें ही है। हम आदतों से जाकर पैर भी छू लेते हैं, मालाएं भी पहना देते हैं, आरतियां भी कर देते हैं, श्रृंगार भी कर लेते हैं, सब कुछ हम कर लेते हैं, क्योंकि हमारे पूर्वज वैसा करते रहे, हमारे पिताजी वैसा करते रहे और चूंकि हम आदतों में जीते हैं इसलिए आदतों से निकलकर कभी कोई सवाल भी नहीं कर पाते।
दोनों बातें असल में जुड़ी है। जब तक आदतों में जीते हैं, तब तक जो हमारे पहले के लोग, घर के आजू बाजू के लोग करते रहे हैं। हम भी करते रहते हैं। अगर बाजू वाला यहां से निकलकर, एक बड़ी मजेदार घटना होगी, अगर यहां पर सभी को प्लेट्स दी जाए और बाजू वाला यहां पर फेंक दे, तो 10 में से 9 मौकों पर हम सब यहां पर फेंक कर चले जाएंगे, क्योंकि बाजू वाले ने किया है तो मैं भी कर देता हूं, जाता क्या है? अगर वहीं एक व्यक्ति उस प्लेट को बाहर फेंक आए, एक आदमी और पीछे जाए तो बाकी सारे लोग बिना कुछ साफ-सफाई को छोड़कर वहां पर चले जाएंगे।
मजेदार एक और घटना होती है कि आजकल भारत के शहरों में, यह विदेशों से बात आई है कि चार छह लोग ग्रुप में खड़े होकर कहीं कुछ करने लगते हैं तो सारे के सारे लोग खड़े होकर देखने लगते हैं कि ऊपर चल क्या रहा है ? उनको पता नहीं कि हो क्या रहा है और सच्चाई वाली बात है, आपको ट्राई करना हो तो अपने चौराहों पर कर लीजिएगा कि अगर चार लोग अपनी टोपी निकालकर कुछ खोकर देखने लगे तो दस लोग और आकर देखेंगे, देख क्या रहे हैं ये ? चल क्या रहा है ? हम आदतों में जीते हैं, क्योंकि भीड़ की मानसिकता आदत की है। धर्म का पथ, आध्यात्म का पथ, एकत्व का पथ है, अकेले चलने का पथ है, इसलिए वो आदतों के विरोध में खड़ा है, क्योंकि जब तक हम आदतों में जीएंगे, तब तक भीड़ में ही जीते रहेंगे।
धर्म की यात्रा अकेले की यात्रा है, अकेले ही चलना है और जब अकेले चलना है तो 100 क्या कर रहे हैं वो नहीं, हम क्या कर सकते हैं, ये देखने की बात है। ये विवेकानंद होने का परिचय है। असल में भारत की आज महा दुर्दशा है। समाज के मायनों में अगर देखी जाए, मैं कोई बात न करूं। किन्हीं चीजों की बात हम केवल इसकी कर लें कि हम प्रतिदित करते क्या हैं ? सड़क की गंदगी हो, घरों के आसपास की गंदगी हो, सड़कों पर हम किस तरीके से चलते हैं, हम कपड़े कैसे पहनते हैं, हमारे घर पर क्या-क्या होता है, हम क्या-क्या खरीदते हैं ? अगर हम सबको एक-एक करके देखने जाएं तो हम पाएंगे कि हम वो चीजें केवल इसलिए ही करते हैं, क्योंकि कोई दूसरा कर रहा होता है। अगर दूसरे न करें तो हम भी न करें। चूंकि दूसरों के घरों में एयर कंडीशनर आता है तो हम सब बोलते है कि एक दिन मेरे घर पर भी होना चाहिए। वो आया क्यों इसकी वजह नहीं है, दूसरों के घर पर है इसलिए हमारे घर पर भी आ जाता है। दूसरे गलत तरीके से गाड़ी चलाते हैं तो हम कहते हैं वो तो चला रहा है, अपने को चलाने में क्या दिक्कत है, हम भी चला लेते हैं। हम आदतों में जीते हैं और आदतों में जीने के बाद फिर दूसरे हमारे जिंदगी को ढाल देते हैं। हम कभी, हम क्या हो सकते हैं स्वतंत्रता के क्षणों में, हम कभी इसका फैसला कर ही नहीं पाते, न हम अपने बच्चों में इन फैसलों को लाने देते हैं।
विवेकानंद एक स्वतंत्रता है, एक गहरी स्वतंत्रता, अगर वो स्वतंत्रता न होती तो वो भी उन्हीं धर्मों और चौराहों पर चलते रहते, जितने लाख और करोड़ों लोग पहले चलते रहे हैं, उन्हें तोड़ा नहीं, मैं न तो आदतों में जीऊंगा और आदतों में जीऊंगा तो सवाल करूंगा और सवाल करूंगा तो जवाब पर नहीं रूकूंगा, अनुभव तक जाऊंगा। भीड़ जाती हो या न जाती हो। विवेकानंद जिस समय सवाल करने जाते थे, पता नहीं आपने कितनी उन कहानियों को सुना है। उनके साथ एक ग्रुप चला करता था, एक ग्रुप हुआ करता था। उस ग्रुप में से कई लोग विवेकानंदजी का कहते रहे कि तुम जिस रास्ते पर हो, क्योंकि विवेकानंदजी, आज तो हम सब कह देते हैं कि बड़ी एरीस्ट्रोक्रेटिक फैमली। अगर लोग इंटरनेट में जाते हैं, विकी पीडिया में जाकर थोड़ा डिफीनेशन देख लेंगे एरीस्ट्रोक्रेटिक। रियालिटी यह है कि विवेकानंदजी के घर पर खाने के लिए रोटी नहीं होती थी। विवेकानंदजी अपनी माँ से झूठ बोलते थे। जाते थे कहीं बाहर घर पर रोटी नहीं होती थी। अन्न इतना कम होता था कि या तो माँ खा सके या तो वो खा सके। तो वो कहते थे सुबह से कि आज तो मेरा जेवन बाहर है, मैं तो खाना बाहर से खाकर आऊंगा। शाम में निकल जाते थे रात में घर लौटते थे, झूठी डकार लेते हुए कहते थे कि खाना तो बड़ा मजेदार मिला, क्योंकि उन्हें पता था कि मॉं कहीं घर पर अकेली भूखी रह जाएगी। यह सिचवेशन थी उनकी। कोई एरीस्ट्रोक्रेट परिवार से नहीं आते थे, जो आज अंग्रेजी भाषी लोग बताना चाहते हैं, क्योंकि गरीब परिवारों से कहना, असल में हुआ यह है कि जो हमारे धर्म पुरुष रहे हैं, लगता है कभी-कभी राम राजसीय परिवार से निकलकर आए हैं, कृष्ण भी वहीं से आता है। हमारे महावीर भी वहीं से आते हैं, बुद्ध भी वहीं से आते हैं। सवाल उठता है न और अक्सर जो सोकाल्ड इंटेलेक्चुअल लोग होते हैं वो लोग कहते हैं विवेकानंद गरीब परिवार से हैं, जमेगा नहीं। भगवान बनाना थोड़ा मुश्किल हो जाएगा। रियालिटी है, सच्चाई है, बहुत सच्चाई है इस बात में कि थोड़ा मुश्किल हो जाए, मुश्किल हो जाएगा तो एरोसिटोक्रेट फैमली से आ जाते हैं, बता दिया जाता है तो विवेकानंदजी घर पर इतनी गरीबी थी कि उनके लोग, उनका ग्रुप कहता था कि विवेकानंद इस रास्ते पर जाओगे तो भूखों ही मरोगे, लेकिन उनका ग्रुप कभी उनको बाधित नहीं कर पाया। वो ग्रुप कुछ भी कहता रहा, वो ग्रुप डायनामिजम से आगे निकलकर, आगे निकलकर कहीं अपनी इंडीविजुवल स्वतंत्रता पर खड़े हुए और बोले नहीं मैं इस परतंत्रता के दीपक से आगे निकलूंगा, क्योंकि नरेन्द्रनाथ से विवेकानंद की जो यात्रा है, वो यात्रा परतंत्रता की यात्रा नहीं हो सकती।
ये दूसरी बात वो कहना चाहते थे कि विवेकानंद होना, विवेकानंद जैसे रास्तों पर चलना, ये आदतों और भीड़ के विरोध में खड़ा है, अगर हम जब तक भीड़ के विरोध में। मैं इस कार्यक्रम को भी कहूंगा कि हमें ऐसे कार्यक्रम भी नहीं करना चाहिए। यदि आज लाखों करोड़ों लोग जो भीड़ के समानांतर कर रहे हैं, वैसे ही कार्यक्रम आज हम यहां पर भी कर रहे हैं। ऐसे अगर विवेकानंदजी की कोई बात हो तो शायद हमें उनका रूपांकन कुछ दूसरा रखना चाहिए। मेरी आज हाथ जोड़कर विनती है कि अगर मेरी बातें दो कौड़ी की भी सही लगे तो हो सके तो विवेकानंदजी के जब कार्यक्रम हो तो भीड़ से ऐसे हटकर हो कि विवेकानंदजी अगर शब्दों में न पहुंच पाए, कम से कम उस आदर्श तक तो पहुंच पाए कि हम कोई आदर्श तो रख सके कि अगर भीड़ से हटकर परम स्वतंत्रता वाला व्यक्ति था तो उसके लिए उसकी सारी कोशिशें हम भीड़ से हटकर परम स्वतंत्रता की ही करेंगे।
एक घटना है कि विवेकानंद जैसा व्यक्ति जब भीड़ से हटकर एक नए आर्डर का, एक मोलेस्टी का एक नए तरीके के सन्यासी का आर्डर तैयार करता है और एक दुर्घटना भारत में होती है। बहुत दुर्घटनाएं भारत में हुई है, एक दुर्घटना होती है कि विवेकानंद जैसा आदमी जिसने हिन्दू की परिभाषा जो दी, जिस परिभाषा को लेकर शायद दुनिया का कोई भी व्यक्ति हिन्दू शब्द के ऊपर शायद अपनी दूसरी प्रतिक्रिया रखेगा। विवेकानंदजी ने चीख-चीख कर कहा था कि जब मैं इस देश लौटता हूं तो मुझे लगता है कि हिन्दू होना गर्व है और वही एक समस्या है कि 1980 में रामकृष्ण मिशन ने कोर्ट में जाकर ये लिखकर दिया था कि हम हिन्दू नहीं है, हमें मायनोरिटी आर्डर में डाल दो। ये दुर्घटना भारत में होती है कि विवेकानंद जैसा आदमी, जिसने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की, उसके पीछे चलने वाले लोग 1980 में सुप्रीम कोर्ट में ये दाखिला देते हैं कि हम हिन्दू नहीं हैं।
ये दुर्घटना होती है, क्योंकि लोग समझ नहीं पाते कि विवेकानंद था क्या ? जो भीड़ कर रही होती है वो 1980 में विवेकानंद जी के पीछे चलने वाले रामकृष्ण मिशन के लोग भीड़ के तारतम्य में वहीं कर लेते हैं। वो करना बड़े अच्छे तरीके से चाहते थे, पूरी कहानी कह दूं, वो करना इसलिए चाहते थे कि सरकार एक नया नियम ला रही थी। नियम यह था कि जो सोकाल्ड मेजोरिटी के जो हिन्दू के इंस्टीट्यूशन हैं, उन पर सरकारी कंट्रोल आते जाएगा। विवेकानंद जी के लोग ये चाहते नहीं थे, क्योंकि वो क्वालिटी बरकरार रखना चाहते थे, लेकिन फंडिंग की प्राब्लम थी, सरकार से फंडिंग लेते थे और सरकार कहती कि तुम तो हिन्दू हो तो तुमको तो मिजोरिटी के इंस्टीट्यूशन के नियम में आना पड़ेगा, क्योंकि मायनोरिटी के जो इंस्टीट्यूशन हैं, एजुकेशनल इंस्टीट्यूशन उनको फुल फ्रीडम है, मिजोरिटी के इंस्टीट्यूशन को फ्रीडम नहीं है, लेकिन भीड़ सारी यही कह रही थी, सारी भीड़ अपने आपको मायनोरिटी में सिद्ध करने में लगी थी, जिससे वो सरकारी फायदा उठा पाए।
विवेकानंद जी के लोग भी फायदा उठाने के लिए वही काम करते, जो पूरा मुल्क कर रहा था, लेकिन वो समझ नहीं पाए कि विवेकानंद जी जैसा आदमी भीड़ से हटकर कहीं रामकृष्ण मिशन की स्थापना करता है और हम उनके पीछे चलने वाले लोग केवल चार'छह हजार करोड़ के पैसे के लिए फायदे के लिए हम वही चीजें करें, जो बाकी लोग कर रहे हैं। क्या यह विवेकानंद जी के पूरे सिद्धांतों की आत्महत्या होगी या नहीं। यह सवाल मैं रामकृष्ण मिशन के पीछे छोड़ना चाहूंगा। पूरा सम्मान है उन्होंने जो कार्यक्रम किए, बड़े मजेदार किए, लेकिन कहीं विवेकानंद जी को समझने में थोड़ी सी भूल की, क्योंकि विवेकानंद की महिमा इतनी है, उन्होंने कार्यक्रम किए महान किए, लेकिन महिमा मंडन ही होता रहा, विवेकानंद बनाने की प्रक्रिया नहीं चली। मैं समझता हूं रामकृष्ण मिशन जिस क्षण विवेकानंद जी ने किया होगा, उनकी उम्मीद थी कि मेरे जीवन में जितना बचता है, मैं 10 युवा रामकृष्ण ने तो एक विवेकानंद दिया है, क्या एक विवेकानंद 10-20 उन जैसे लोगों को पैदा नहीं कर पाएगा। इसलिए उन्होंने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की थी कि चलो एक कोशिश तो हो शिक्षा के संस्थानों से, जहां ऐसे बीज दिए जाएं, जिन बीजों से एक नहीं 10 लाख रामकृष्ण के शिष्य विवेकानंद जैसे लोग इन सड़कों और चौराहों की प्रतिक्षण यात्रा कर पाएं, नहीं तो इसके अलावा अगर विवेकानंद जी कुछ और सोच सकते हैं तो पता नहीं और क्या सोच सकते हैं। ये एक महत्वपूर्ण बात रही विवेकानंद जी की, जो थोड़ी बहुत मैं बात करना चाहता था, मुझे यह भी लग रहा था कि कहीं ऐसा न हो कि लोग कहे हम तो सुनने आए थे कि विवेकानंद होना क्या है और मुझे लगता है कि अगर विवेकानंद जी की सारी बातें प्रतिक्षण रोज चौराहों पर चल रही है, बड़े-बड़े स्मारक लग गए हैं।
मजेदार घटना है तीन चार साल पहले की, जब इनकी एक फोटो दिल्ली के संसद के हाल में लगनी थी, कहीं कुछ हो रहा था, बड़ा हंगामा हुआ था। हंगामा इसलिए हुआ था कि हम तो संतों को भी बांट लेते हैं कि किस पार्टी से कौन आता है। एक घटना हुई, विवेकानंद जी जिस समय पर जागे थे, जब विवेकानंद बने थे, उन्होंने एक बात बड़े स्पष्ट तरीके से देखी थी, जो भारत में घट रही थी कि भारत का जो आध्यात्मिक और धार्मिक जगत् था वो भारत की समाज और व्यवस्था के प्रति पूर्णत: उदासीन था। गहरी उदासीनता थी। समाज में क्या हो रहा है, समाज किस तरफ जा रहा है, लोग क्या हो रहे हैं, उसके तरफ कोई जागृति नहीं थी। विवेकानंद जी ने धर्म को गहरे और आध्यात्म को गहरी अनुभूति के साथ जब समझा तो पाया कि जो समाज में घट रहा है, जो राष्ट्र में हो रहा है, जो एक समुदाय में घट रहा है, उसका बहुत बड़ा कारण यह भी है कि कहीं धर्म और आध्यात्म की गहरी दीक्षा लोगों तक पहुंचा भी नहीं पा रहे हैं तो उन्होंने एक नया नारा दिया, उन्होंने एक नई बात कही कि अगर धर्म की बात करने वाले लोग हैं, अगर वो समाज के अंदर क्या हो रहा है, समाज किन रास्तों पर जा रहा है, अगर उसकी बात वो नहीं कर पाए तो धर्म को भी शायद पहुंचाने में अक्षम हो जाएंगे।
अगर दूसरे अर्थों में कहूं तो विवेकानंद जी ने कहा या सोचा होगा कि कितने भी राजयोग, धर्मयोग, कर्मयोग, ध्यान योग की बात हो जाए, लेकिन सड़कों पर चलता हुआ आदमी अगर समाज में फैली हुई इस गहरी परतंत्रता को प्रतिक्षण स्वीकार करते जाता है तो गीता का सार, अर्जुन और कृष्ण व्यर्थ है। इसको लेकर उन्होंने कहीं समाज के प्रति इस फैली हुई उदासीनता को निकालने के लिए धर्म को कहीं समाज के बीच भी जो चल रहा है, उसको देने का रास्ता अपनाया।
एक परतंत्रता थी, अंग्रेजों का युग था, दास्ता थी। एक दूसरी बात हम समझ नहीं पाए और होता भी यह है कि धर्म की बात करने वाले लोग धर्म की बात करके, क्योंकि धर्म की बात हिन्दुस्तान में करिए, पांच दस हजार की भीड़ मिलना बड़ी आसान बात है, मिल ही जाएगी। आप कहीं पर भी भागवत करिए, पांच-दस हजार की भीड़ मिल ही जाएगी। धर्म की बात करिए भीड़ मिलना स्वाभाविक है। बड़े इन्सेक्यूर लोग हैं, ईश्वर के पास जाना जरूरी होता है। इतनी इंसेक्यूरिटी है तो लोग धर्म की बात कर-करके आज राजनीति के संघर्षों में धर्म को ही खींच ले रहे हैं कि धर्म की बात कर रहे हैं और धर्म की गद्दी से और जब मौका मिलता है राजनीति के गलियारों में चौराहों पर पहुंचकर राजनीति की गहरी पिपाशा करने लगते हैं। मैं बिल्कुल विवेकानंद जी की बात से सहमत हूं कि धर्म समाज के प्रति उदासीनता नहीं है, लेकिन साथ ही साथ धर्म और आध्यात्म की बात करने वाले लोग अगर जो आज एक्टिव राजनीति में जाने की कोशिश करने लगे, उसे दिन धर्म खत्म हो जाएगा, क्योंकि रास्ता दिखाने वाले लोग, जरा सोचिए, अगर जो ट्राफिक लाईट होती है, मैं समझता हूं धर्म की बात करने वाले लोग समाज की भूमिका में ट्राफिक लाईट की बात है कि बताए दिशा कहां है, मार्ग बता रहे हैं कि दिशा कहां है। अगर दिशा बताने वाला यंत्र ही खुद ही रास्तों पर ट्रेवल करने लगे तो रास्ता बताने वाला बचेगा कौन ? बड़ी भगदड़ मच जाएगी, सब अंडबंड हो जाएगा। हो यही रहा है कि जिन्हें रास्ता बताना चाहिए वो देखते हैं रास्ता बताने से अच्छा है रास्ते पर चलने में ज्यादा मजा है। चलो चल ही लेते हैं। महाराज बनने वाले लोग अक्सर राजनीति की लंबी यात्रा कर ही लेते हैं, कर ही रहे हैं और भारत उनको करने भी दे रहा है।
विवेकानंद जी ने राष्ट्रवाद की जब बात की थी, कहा था कि ऐ धर्म में जीने वाले तुम लोग प्रतिक्षण धर्म के आधार से समाज के प्रति नए नियम बनाने वाले तुम लोग अगर समाज की इस उदासीनता में जीवन बिताकर लेकर गए तो धर्म भी शून्य है तो जरा जागो, जागो देखो कि तुम जो धर्म से पार हो क्या, समाज में उसके प्रति कोई काम कर पा रहे हो कि नहीं हुआ। उल्टा यह है कि बीते 10, 15, 20 सालों में धर्म की बात करने वाले लोग, गीता बाचने वाले लोग मुख्यमंत्री बन गए। गीता छूट गई, मुख्यमंत्रीत्व आ गया। धर्म की बात करने वाले लोग अक्सर राजनीति के चौराहों पर ऐसी अच्छी-अच्छी बात करते हैं कि लगता है कि राजनीति वाले धर्म में आ जाए ज्यादा बेहतर होगा और धर्म वाले राजनीति में चले जाएं, ज्यादा बेहतर होगा।
ये दूसरा दुर्भाग्य है विवेकानंद जी को न समझ पाने का कि समाज में फैली हुई उदासीनता के प्रति हमारा एक चैतन्य होने से ज्यादा लोगों ने धर्म की बात करते-करते राजनीति कर ली और इससे हुआ यह कि राजनीति करने वाले लोगों ने धर्म के प्रति वो सवाल खड़े कर दिए कि इनके पास जवाब देना ही मुश्किल हो गया। धर्म को जो काम द्रोपदी के साथ कहीं उन कौरवों के हाल में हुआ था, आज राजनीति के मैदान में वही काम धर्म के लोगों के साथ होता है कि धर्म का आदमी ये उसे पता नहीं कि किस सब्जेक्ट पर उसे बात करनी भी है कि नहीं, लेकिन वो जाकर चिल्लाने लगता है, हश्र यह होता है कि टीवी वे कार्यक्रमों में बालीवुड की हीरोईनें भगवा पहने हुए साधु को ऐसी-ऐसी बातें करके चले जाती है कि लोग कहते हैं बढि़या कहा, बहुत उटपटांग बात करता था।
एक कार्यक्रम था, मैंने देखा वो कार्यक्रम चार-पांच साल पहले। कोई बात चल रही थी, साधु सन्यासी आकर अक्सर बात करते हैं कि कपड़े कम हो रहे हैं, ये हो रहा है। कर लोग रहे हैं टीवी में, वही सब कुछ चल रहा है, लेकिन साधु सन्यासी सबसे पहले आकर कहते हैं कि सब कुछ कम हो रहा है, गलत है, ऐसा है वैसा है। तो डीबेट चल रही थी, डीबेट के बीच में कुछ बालीवुड की हीरोईनें बैठी हुई थीं, चूंकि वो वाचाल है वो कहती हैं उस सन्यासी को, बड़ा महान सन्यासी है वह भारत का, हम जानते हैं, हम सब जानते हैं उन्हें। कहती है बाबूजी आप तो धर्म की बात करने वाले हैं। आप तो सन्यासी आदमी हैं, ब्रम्हचारी आदमी हैं। ब्रम्हचारी हो जाने के बाद आपको दूसरों के कपड़े क्यों दिखाई देते हैं ? उनके पास जवाब देने के लिए कुछ बचा नहीं था।
मैं कहना यह चाहता हूं कि आज हो यह रहा है कि समाज के नियमन और धारणा और समाज के प्रति चेतनता की बात करने से ज्यादा हम राजनीति और राजनीति में धर्म के लोग कैसे पहुंच जाए, इसकी चेष्टा ज्यादा करते हैं। राष्ट्रवादी होने का मतलब हम यही समझते हैं कि जब तक यहां झंडे रखकर हम जब तक राजनीति के मैदानों और संसदें क्या तय कर रही हैं, उसकी बात न करें तो जब तक धर्म का होना हुआ ही नहीं। राष्ट्रवादी बनने का अर्थ हम नहीं समझ पाते कि जो विवेकानंद जी ने कहा था कि जिन-जिन क्षणों से होकर, विवेकानंद जी से एक बार पूछा गया था अमेरिका में कि बताओ नेशनलिस्ट होने का भाव क्या है ? तो बोले तुम समझ नहीं पाओगे, क्योंकि राष्ट्रीयता बड़ी दूसरी बात है। वापस लौटकर आते हैं चैन्नई पहुंचते हैं, चैन्नई की एक सभा होती रहती है, चूंकि पेपर बहुत दिनों बाद उस समय मिलते थे, वही सवाल किया जाता है कि साहब तुमने वह ? तो उत्तर नहीं दिया था, बताओ न राष्ट्रीयता होने का मतलब क्या है, भाव क्या है ? बोले हां इस समय बता सकता हूं विवेकानंद जी ने कहा था कि राष्ट्रीयता वह भावना है, जहां हम जीवन के महा आदर्शों से अनुभव लेकर समाज के बीच हम बांट क्या सकते हैं, अपने भूक्षेत्र को हम दे क्या सकते हैं ? जब हम उस क्षेत्र में कार्य करते हैं तो वह राष्ट्रीयता होती है।
बड़ी महत्वपूर्ण बात कही थी, लेकिन भारत इसको रिपिट नहीं कर पाया। वो राष्ट्रवादी संत और विचारक की बात करता रहा, लेकिन राष्ट्रीयता और राष्ट्रवादी होने का अर्थ क्या है ? विवेकानंद जी का कहना ये था कि जो महान दान की परंपरा धर्म की रही है न कि जो हमने पाया हम जाकर सामने वाले को थोड़ा दे देते हैं। विवेकानंद जी वही बात कह रहे हैं कि तुमने जो महान जीवन के आदर्शों से जो पाया समाज के बीच अगर थोड़ा बहुत दे दो तो तुम्हारी राष्ट्रीयता घटित हो गई। यही राष्ट्रवादिता है। इसकी बात हम कम से कम करते रहे। अंत में लगभग-लगभग 46 मिनट हो चुके हैं। जैसे मैंने कल भी कहा था कि 45 मिनट के बीच लोग सोने लग जाते हैं, फिर कान शायद खुले रहते हैं, बंद नहीं कर सकते। थोड़ी आंखें भी खुली रहती है, दिमाग बंद हो जाता है। विज्ञान कह रहा है। अंत में एक बात जरूर कहूंगा और इसकी समाप्ति करूंगा, अगर कोई सवाल होंगे विवेकानंद जी के संबंध में बिल्कुल स्वागत करूंगा कि हो सके हम विवेकानंद की एक खोज शुरू हो, अगर हम अगले साल आप सब लोग, प्रति साल अगर यहां आते हैं, विवेकानंद की जयंती में अगर विवेक बसव प्रतिष्ठान के तरफ से कार्यक्रम होते हैं, आप लोग आते हैं तो ये कार्यक्रम, ये विवेक बसव प्रतिष्ठान और आप सब लोग मिलकर एक बात करें कि अगले एक साल तक खोज चले कि जरा हम जाने तो कि वो क्या था, जिसने नरेन्द्रनाथ को विवेकानंद बनने पर मजबूर कर दिया था। अगले साल अगर कोई कार्यक्रम हो यहां पर बच्चों, बूढ़ों, जवानों के बीच तीन दिन तक डिबेट चले कि भैईया विवेकानंद बना क्यों था ? हमारे जैसे लोग रोज आकर चिल्लाकर बोलकर चले जाएंगे, लेकिन हमारी खोज कब शुरू होगी। हो बात तो ये कि अगले साल तीन दिन के अगर कार्यक्रम यहां होते हो तो सब कुछ चले बच्चे, बूढ़ों और महिलाओं के बीच जरा बात तो चले वाद-विवाद तो चले कि आखिर विवेकानंद जैसे इंसान बनते कब हैं, होते कब हैं ? कैरेक्टर्स क्या होते हैं ? हम कैरेक्टर्स तो डिफाईन करें। महिमा तो हम करते रहेंगे, महिमा करके सारे महापुरुषों को चौराहों पर लाकर खड़ा कर दिया। हर चौराहे पर एक महापुरुष है, उसी महापुरुष के साथ कहीं महादुर्भाग्य हो जाता है। चौराहे पर महापुरुष है और एक इंट्रेस्टिंग बात है कि जैसे हम चौराहे पर महापुरुष खड़े कर देते हैं तो हम उसके आदी हो जाती हैं। फिर ज्यादा सोचना नहीं पड़ता है। गांधी खड़े ही हैं, हर चौराहे पर हैं गांधीजी। अंबेडकर हर चौराहे पर आ ही गए। राम, कृष्ण सबके मंदिर इतने बने हैं ही, खोजना क्या है, जरूरत क्या है। हम उनके आदी हो जाते हैं, इसलिए हम चौराहों पर हम बड़े निपुण लोग हैं, हिंदुस्तान बड़ा निपुण राष्ट्र है। वो साईकोजिकल साईंस का सबसे ज्यादा बड़ा, मतलब हमारे यहां डाक्टर्स की जरूरत नहीं है, हमारे यहां बड़े-बड़े सायक्लोजिस्ट हैं।
तो अगले साल अगर कोई कार्यक्रम करना हो तो हो ये कि अगले तीन दिन वाद-विवाद चले और वाद-विवाद भी वो वाद-विवाद जहां लड़ने के लिए नहीं, जहां खोजने के लिए हम तैयार करें अपने बच्चों को, हम खुद स्वयं कि आखिर, हम डिफाईन क्या करेंगे कि वाट इज विवेकानंद, क्या है विवेकानंद ? कैरेक्टर्स को तो डिफाईन करें, अगर हो सके तो मेरे को लगता है कि विवेकानंद जी के बारे में चाहे 10 हजार किताबें बाहर मिले आपको फ्री में या ना मिले। विवेकानंद समाज में जीने की एक संकल्पना हम जरूर दे जाएंगे और अगर एक ऐसे कार्यक्रम शुरू हुए तो कम ये हो सकता है कि कल इनको देखकर कि हटकर कोई आदमी कार्यक्रम हो रहा है भीड़ से हटकर कोई कुछ कर रहा है। कोई आदमी आपसे भी हटकर एक नई चीज कर सके। जब नई चीज करेगा तो हो सकता है कि कल ऐसे साधन बने, जहां पर हम अपने बच्चों को, हम अपने लोगों को तैयार कर सके, नरेन्द्रनाथ से विवेकानंद की यात्रा में।
अगर वो यात्रा हुई तो फूल मालाएं चढ़े न चढ़े विवेकानंद जीता जागता हमारे बीच रहेगा। नहीं तो मालाएं चढ़ती रहेगी, विवेकानंद डस्ट में जाता रहेगा। हर साल डस्ट, फिर वहीं निकालना पड़ेगा, लगाना पड़ेगा, मालाएं चढ़ानी पड़ेगी। विवेकानंद कहीं दिखेता नहीं। बहुत कम समय गया है, सौ साल हुए हैं, राम को हम कितना खोज पाए। लोग तो ये भी कहते हैं कि राम हुए या नहीं हुए। क्या पता इतिहास बताता नहीं है। कम से कम इस व्यक्ति के बारे में तो लिखित इतिहास है, अगर हम खोज करने जाएंगे तो हम सब पा लेंगे कि वो हुआ था या नहीं, मिला नहीं, मिला था कि नहीं, जगा था कि नहीं था कुछ की नहीं।
अगर इनकी खोज करने गए तो रामकृष्ण की भी खोज कर पाएंगे। रामकृष्ण की खोज करेंगे तो उनके जैसे वो जिनसे-जिनसे मिलते थे, वो कहीं शिव की बात करते थे, रामकृष्ण ऐसे व्यक्ति रहे भारत के, जब उन्होंने प्रेक्टिकल करना शुरू किया। ये जो सर्वधर्म स्वभाव बात है न, ये सर्वधर्म स्वभाव कह देने से ऐसे नहीं आ जाता। इसके लिए जीना पड़ता है। रामकृष्ण ने अपने जीवन में छह महीने पूरी तरीके से एक मुसलमान बनके जीया और देखा कि इस्लाम में क्या हो सकता है। छह महीने पूरी तरीके से क्रिश्चयन बनकर जीया, टोटल क्रिश्चयन, जो क्रिश्चयन करते हैं वो ही करते थे, फिर काली के पास नहीं जाते थे। अच्छा मैंने पूरी तरीके से जैसा एक व्यक्ति इस्लाम की दुनिया आता है वैसे कपड़े, वैसा सब कुछ, वैसा करके जीया और देखा कि क्या होता है। उनका सर्वधर्म स्वभाव और जब बाहर निकलते हैं और जब देखना होता, अरे बोले वो तो यार शंकर वाला आदमी है। अरे यार वो राम वाला आदमी है, वो कृष्ण वाला आदमी है, फिर तो और होगा तो बोले रामकृष्ण वल्लभ वाला है, वो इसका वाला है। हमारा फिर सारा सर्वधर्म यहीं पर आकर खत्म हो जाता है, कल किसी ने सवाल किया कि धर्म क्या है ? मैंने कहा धर्म, मर्म है, करुणा है, आज कहता हूं कि धर्म विभाजन से एकत्र की यात्रा है। डिवाईड से यूनिटी की तरफ चलना, ये धर्म है।
अधर्म विखंडन है यूनिटी से खंड-खंड में टूट जाना ये अधर्म है। सर्वधर्म स्वभाव में अगर फिर हम विवेकानंद जी की खोज कर पाए, कैरेक्टर्स जान पाए तो रामकृष्ण की खोज करेंगे। रामकृष्ण की खोज करने जाएं तो फिर सैकड़ों अनेकों चीजें आएगी। बेसिकली हम इस धर्म के बहुत विस्तार को छू पाएंगे। खोज बड़ी सौ साल के इतिहास से शुरू होती है। हाथ जोड़कर कहना हूं कि अगर विवेकानंद जी के ऊपर कोई कार्यक्रम करना हो तो ऐसे कार्यक्रम हो तो शायद विवेकानंद जी के लिए कोई प्रणाम की वस्तु बनेंगे भी, नहीं तो ऐसे कार्यक्रमों से मुझे लगता है कि विवेकानंद जी ऊपर बैठकर कहीं न कहीं तिलमिलाकर कह रहे होंगे कि यार मैंने तो कहा था कि युवाओं जागो और तुम तो जैसी भीड़ सो रही है, वैसी नींद में तुम भी चले गए। पर अगर वाकई हमें उत्तिष्ठ भारत की कल्पना ले रहे हैं तो उठें और रियली जागे, जाग सके तो विवेकानंद भी जागेंगे, कहीं हम सबके बीच चलेंगे। आप सभी को बहुत-बहुत प्रणाम।
सादर प्रणाम।
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