आपने देखा लोग मंदिर जाते हैं , हम ऐसे स्थल पर आ रहे हैं, जहां पर प्रभु विराजमान है, जिससे इस पूरी पृथ्वी का, इस पूरे संसार की नियम और मर्यादा चलती है, हम उसके मंदिर पर प्रवेश कर रहे हैं और जाकर अपने-अपने जूते और चप्पल देखकर आइए इतनी अव्यवस्था, इस व्यवस्था के मंदिर तक आने के लिए, समझ में नहीं आती। असल में हम आदतों में जीते हैं। हमारा मनुष्य होना तभी तक है, जब हम आदतों में हैं, जब हम आदतों के विरोध में खड़े हो जाते हैं, जब आदतें पीछे हो जाती है और जब हम कहीं आगे निकल जाते हैं, तब वो यात्रा शुरू होती है, जिसे मैं नरेन्द्रदत्त से विवेकानंद की कहता है, जिसे मैं नर से नारायण की यात्रा कहता हूं, क्योंकि हमारी बाकी सब कुछ आदतें ही है। हम आदतों से जाकर पैर भी छू लेते हैं, मालाएं भी पहना देते हैं, आरतियां भी कर देते हैं, श्रृंगार भी कर लेते हैं, सब कुछ हम कर लेते हैं, क्योंकि हमारे पूर्वज वैसा करते रहे, हमारे पिताजी वैसा करते रहे और चूंकि हम आदतों में जीते हैं इसलिए आदतों से निकलकर कभी कोई सवाल भी नहीं कर पाते।
-विवेक जी "स्वामी विवेकानंद और भारत" व्याख्यान कार्यक्रम से