
बहुत बड़ा दुर्भाग्य है कि आज वो लोग जो विवेकानंदजी की जयंती आज इतने दिनों से मना रहे हैं, अगर विवेकानंदजी की बात 11 सितंबर और अमेरिका के उद्घाटन से करनी पड़ती है तो मुझे इस बात का बड़ा दुख है, रंज है। रंज इस बात का है कि विवेकानंदजी ने जो बात 11 तारीख को कही थी, 11 सितंबर को, उसके पहले उन्होंने चीख-चीख कर वो बातें कही थी, जो बातें भारत आज तक उच्चारित नहीं कर पाया। मुझे रंज है, इस बात का दुख है।
आपको पता है कि विवेकानंदजी ने अपने भावी जीवन के कितने दिन, जिस भावी जीवन को लेकर बड़ी संकल्पनाओं से हो हल्ला किया जाता है, कितने दिन उन्होंने भारत में गुजारे, किसी को कोई आइडिया है, कोई आइडिया, कोई रफ आइडिया। उन्होंने अपने चौदह साल, जिन चौदह सालों में विवेकानंदजी ने वो जो कुछ भी किया, जिससे रामकृष्ण मिशन निकलकर आया या जिसके कारण कहीं मठ बने या जिसके कारण हम हजारों किताबें विवेकानंदजी की देख पाते हैं, उनके बहुमूल्य चौदह सालों में से उन्होंने करीबन आठ साल विदेशों में गुजारे। हमारे लोग कहते हैं कि विदेशों में शिक्षा दे रहे थे। बता रहे थे कि क्या चल रहा है, हिन्दू पाठ कर रहे थे। जहां तक मेरी समझ जाती है, विवेकानंदजी को वो छह साल विदेशों में इसलिए गुजरने पड़े, क्योंकि भारत रिसेप्टीव नहीं था, उनके छह सालों को अपने पास खींच लेने के लिए। अगर भारत रिसेप्टीव होता तो विवेकानंदजी जैसा आदमी जो भारत के एक-एक कण को एक परमाणु बम बनाने की क्षमता रखते थे , वो अपने आठ बहुमूल्य साल कभी विदेशों की धरती पर नहीं गुजारते।
-विवेक जी "स्वामी विवेकानंद और भारत" व्याख्यान कार्यक्रम से