
मनुष्य की अस्मिता और चेतना का प्रयोग आध्यत्म और धर्म है। आज से सैकड़ों साल पहले एक सन्यासी ने बिना रुके समस्त भारत की पद परिक्रमा करते हुए, सोते हुए राष्ट्र और संस्कृति के लिए अपना जीवन लगा दिया, इस सन्यासी की परिकल्पना से ही भारत के अखंडता ने अपना वैभव प्राप्त किया।
आदि शंकराचार्य ने भारत की सोती हुई जीवन मूल्यों की परंपरा को पुनर्जीवित किया था, उनका प्रयोग शास्त्रीय था, सम्मोहक था जिसके आधीन संस्कार की समस्त अनुभूतियाँ थी। उन्होंने भारत की नदियों के लिए, सर्वप्रथम अष्टकों की रचना की, आज से हज़ारों वर्ष पहले भारतीय जीवन पद्धति में उन्होंने जल के मूल्यों की नूतन कल्पना की थी।
इसी सन्यास की परम्परा में एक अनोखे कवि और भक्त सूरदास का जयंती भी आज ही है, जिनके भक्ति के पद धर्म की नूतन व्याख्या है। सूरदास हिंदी साहित्य परम्परा के सूर्य हैं जिनके पीछे इस भारत का साहित्य आज भी चलने की कोशिश कर रहा है।
लिखते हैं - रे मन मूरख जनम गंवायो | कर अभिमान विषय सों राच्यो , नाम सरन नहीं आयो ||
यह संसार फूल सेमर को , सुन्दर देख लुभायो | चाखन लाग्यो रुई उड़ गई , हाथ कछु नहीं आयो ||
कहा भयो अब के मन सोचे , पहिले नहीं कमायो | सूरदास सतनाम भजन बिनु , सर धुनी धुनी पछितायो ||